जारुल्लाह ज़मख़शरी अपनी तफ़सीर (तफ़सीरुल कश्शाफ़), जि.२, स.१९७ में इब्ने अ़ब्बास से रवायत है कि एक मर्तबा रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) अपने अस्ह़ाब के साथ इमाम ह़सन (अ़.स.) और इमाम ह़ुसैन (अ़.स.) की अ़यादत के लिए तशरीफ़ ले गए जब वोह बीमार थे। उस वक़्त अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली (अ़.स.) वहाँ मौजूद थे। ह़ुज़ूर ने फ़रमाया: “ऐ अबुल ह़सन! आप अपने बच्चों की जल्द सेहतयाबी के लिए नज़र क्यों नहीं मानते?” इस तरह़ अ़ली (अ़.स.), जनाबे ज़हरा (स.अ़.), और जनाबे फ़िज़्ज़ा ने तीन दिन के रोज़े रखने की नज़र मान ली कि अगर बच्चे बीमारी से सेहतयाब हो जाएँ तो येह ह़ज़रात तीन दिन रोज़ा रखेंगे। ह़सनैन (अ़.स.) की सेहतयाबी के बअ़्द जब उन्होंने पहले दिन का रोज़ा रखा तो घर में इफ़्तारी के लिए कुछ भी नहीं था। इमाम अ़ली (अ़.स.) ने ख़ैबर के एक यहूदी शमआ़न से तीन किलो जौ क़र्ज लिया। आप (अ़.स.) ने वोह जौ जनाबे ज़हरा (स.अ़.) को दिया जिन्होंने उससे चन्द रोटियाँ बर्नाइं। अलबत्ता जब इफ़्तारी के लिए बैठे उस वक़्त उनके दरवाज़े पर एक फ़क़ीर ने आवाज़ दी कि: “ऐ अह्लेबैत! मैं आप को सलाम पेश करता हूँ। मैं ग़रीब और मोह़ताज हूँ। मुझे कुछ खाने को दो। यक़ीनन अल्लाह तुम्हें जन्नत के सामान से नवाज़ेगा।” येह इल्तेजा सुनकर उन सब ने अपने अपने ह़िस्से की इफ़्तारी माँगने वाले फ़क़ीर को दे दी और पानी से ही रोज़ा खोला। दूसरे दिन उन्होंने फिर रोज़ा रखा। ऐसा ही मुआ़मेला हुआ। इस बार इफ़्तार के वक़्त एक यतीम आया और कुछ मदद की इल्तेजा की। इस बार भी उन तीनों ने अपने ह़िस्से की इफ़्तारी उस यतीम को दी। जब उन्होंने तीसरे दिन रोज़ा रखा तो फिर इफ़्तार के वक़्त एक मिस्कीन उनके दरवाज़े पर आया और खाने की दरख़ास्त की। तीसरी बार सब ने अपने ह़िस्से की इफ़्तारी उस ग़रीब को दे दीया। अगली सुब्ह़ इमाम अ़ली (अ़.स.), इमाम ह़सन और इमाम ह़ुसैन (अ़.स.) के साथ रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) से मिलने गए। आप (स.अ़.व.आ.) ने उन्हें भूक और प्यास की वजह से काँपते देखा, आप (स.अ़.व.आ.) ने फ़रमाया: “तुम्हें इस ह़ालत में देखकर मुझे दुख हुआ।” फिर ह़ुज़ूर (स.अ़.व.आ.) उठे और जनाबे ज़हरा (स.अ़.) के घर तश्रीफ़ ले गए। आप (स.अ़.व.आ.) ने उन्हें मेह़राब में बैठा पाया और भूक की वजह से इस क़द्र कमज़ोर हो चुकी थी कि आप का पेट आप की कमर को छू रहा था जबकि आप की आँखें अन्दर धँस चुकी थीं। अपनी प्यारी बेटी को इस ह़ालत में देखकर रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) को दुख हुआ। उस वक़्त ह़ज़रत जिब्रईल अमीन आसमान से नाज़िल हुए और ह़ुज़ूर (स.अ़.व.आ.) से फ़रमाया: “ऐ मोह़म्मद! अल्लाह तआ़ला ने येह सूरह आप को और आप के अह्लेबैत को बतौरे सलाम और मुबारकबाद पेश किया है। चुनाँचे ह़ुज़ूर (स.अ़.व.आ.) ने उस मौक़ेअ़् पर सूरह दह्र की तिलावत फ़रमाई।
अ़ल्लामा नेशापूरी अपनी तफ़सीर में इस वाक़ेआ़ को बयान करने के बअ़्द लिखते हैं: रवायात के मुताबिक़ तीनों रातों मे दरवाज़े पर आने वाला फ़क़ीर कोई और नहीं बल्कि जनाबे जिब्रईल (अ़.स.) था। वोह अल्लाह के ह़ुक्म पर उनके सब्र का इम्तेह़ान ले रहा था।
शहाबुद्दीन आलूसी ने अपनी तफ़सीर “रूह़ुल मआ़नी” जि.१ में “अल कश्शाफ़” का मज़्कूरा वाक़ेआ़ नक़्ल किया है। स. २९ से स. १५८ और तब्सेरे में लिखा है कि “इमाम अ़ली (अ़.स.) और जनाबे ज़हरा (स.अ़.) के बारे में कोई क्या कह सकता है सिवाए इसके कि इमाम अ़ली (अ़.स.) तमाम मोअ्मिन के पेशवा और पैग़म्बरे अकरम (स.अ़.व.आ.) के ज़ानशीन हैं। क्या जनाबे फ़ातेमा, रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) की मह़बूब और सआ़दत हैं। इमाम ह़सन (अ़.स.) और इमाम ह़ुसैन (अ़.स.) फूल की ख़ूशबू की तरह़ हैं और जन्नत के जवानों के सरदार हैं। येह अ़क़ीदा सिर्फ़ शीआ़ (राफ़ेज़ी) का नहीं है। दर ह़क़ीक़त इसके अ़लावा किसी चीज़ पर ई़मान लाना सरासर गुमराही है।
चुनाँचे सूरह दह्र की तमाम आयात अह्लेबैत (अ़.स.) की फ़ज़ीलत को साबित करने के लिए नाज़िल हुई हैं। इस बाब में ग़ौर तलब बात येह है कि इसमें अगरचे जन्नत की नेअ़्मतों का ज़िक्र है लेकिन इस बाब में ह़ूरों का कोई ज़िक्र नहीं है। येह जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (स.अ़.) की तअ़्ज़ीम की अ़लामत है।
मज़ीद तफ़सीलात के लिए येह ह़वाले देखे जा सकते हैं:
अ़ल्लामा शाफ़ई़ ने अपनी किताब किफ़ायतुत्तालिब में स.२४ में लिखा है की “पहला फ़क़ीर जिब्रईल, दूसरा फ़क़ीर मिकाईल और तीसरा इस्राफ़ील था।”
ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) और इमाम अ़ली (अ़.स.)
अ़ल्लामा शहाबुद्दीन आलूसी अल बग़दादी अपनी तफ़सीर, तफ़सीरे रूह़ुल मआ़नी, जि.३, स.३ में लिखते हैं: ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) के अल्लाह से उस सवाल के बारे में कि वोह मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करेगा के बारे में एक रिसर्च इस्कॉलर का नज़रिया। ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) ने अपने दिल की तसकीन के लिए येह सवाल किया था। आ़लिम का कहना है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) का येह सवाल किसी तौर भी उन्हें इमाम अ़ली (अ़.स.) से कम अहम्मीयत नहीं देता। उस आ़लिम की दलील हम यहाँ नक़्ल करते हैं और बअ़्द में उसका तजज़िया करेंगे।
अ़ल्लामा आलूसी उस आ़लिम का क़ौल ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि मुझे उस मुह़क़्क़िक़ के उस क़ौल पर तअ़ज्जुब हुआ जिसमें वोह ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) का देफ़ाअ़् करते हुए कहता है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) का सवाल किसी शक की वजह से नहीं था। बल्कि वोह येह जानने के मुतमन्नी थे कि अल्लाह तआ़ला मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करेगा ताकि आप (अ़.स.) को इस मुआ़मले का मुकम्मल इ़ल्म हो सके। मअ़्लूम होना चाहिए कि इस मुआ़मले में ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) की लाइ़ल्मी उनके कमज़ोर ईमान की अ़लामत नहीं है। उसका बेहतरीन सबूत येह है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) ने अल्लाह से पूछा कि कैसे? इससे मअ़्लूम होता है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) मुर्दों के ज़िन्दा करने के अ़मल को जानने के लिए बेचैन थे।
ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) की येह ज़ाहिरी बेख़बरी किसी तौर पर भी इस बात की निशानदही नहीं करती है कि आप (अ़.स.) अल्लाह के मुताबिक़ और लामह़दूद क़ुदरत से नावाक़िफ़ थे। मुर्दों के ज़िन्दा करने के अ़मल को समझना यक़ीन की शर्त नहीं है। लेहाज़ा, ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) को अल्लाह तआ़ला की तरफ़ से मुर्दों को किस तरह़ ज़िन्दा किया जाएगा, उसके बारे में आगाही उनके ईमान की सतह़ में एज़ाफ़ा नहीं करती। चुनाँचे जब इमाम अ़ली (अ़.स.) फ़रमाते हैं कि: “अगर ग़ैब के पर्दे उठा दिए जाएँ तो उससे मेरे यक़ीन में एज़ाफ़ा नहीं होगा।” वोह ख़लीलुल्लाह के अ़क़ीदे के मुक़ाबले में अपने अ़क़ीदे की बरतरी साबित करने की कोशिश नहीं कर रहा है (जैसा कि जाहिल शीआ़ साबित करने की कोशिश कर रहे है)। हमारे अक्सर उ़लमा भी इस नुक़्तए नज़र से नावाक़िफ़ हैं और अपने आप को शीओ़ं के इस तसव्वुर की तर्दीद करने में दुश्वारी का शिकार हैं कि इमाम अ़ली (अ़.स.), ह़ज़रत इब्राहीम से अफ़ज़ल थे।
फ़ख़रुद्दीन राज़ी अपने जवाब में कहते हैं कि “दिल का इत्मीनान” का मतलब है “शक करने वाले के दिल में पैदा होने वाले शुब्हात को दूर कर देना।” (तफ़सीरे कबीर, जि.१ स.४०)। बेसुकूनी और तज़बज़ुब के बअ़्द दिल की तस्कीन को तमानिया कहते हैं। येह लफ़्ज़ ‘ज़मीन की सकून’ से माख़ूज़ है। एक पुरसुकून ज़मीन, ज़मीन पर वोह जगह है जहाँ बहता हुआ पानी रुक जाता है (ज़मीन में एक छोटा सा दबाव की तरह़)। लेहाज़ा ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) की तस्कीने क़ल्ब की दरख़ास्त से साबित होता है कि आप (अ़.स.) एक “मुकम्मल और कामिल” ईमान चाहते थे और उनके दिल में मौजूद तमाम शुकूक-ओ-शुब्हात को दूर किया जाए।
एक अहम नुक़्ता जिसका यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी है वोह येह है कि हम ने ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) के बारे में जो भी बह़्स की है वोह अह्लेबैत (अ़.स.) पर लागू नहीं है। अगर येह फ़र्ज़ कर लिया जाए कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) जो ‘दिल का इत्मेनान’ चाहते थे वोह मुर्दों को ज़िन्दा करने के अ़मल से नहीं था, बल्कि वोह इस बात का यक़ीन करना चाहते थे कि क्या वोह अल्लाह के ‘दोस्त हैं?’ इमाम रज़ा (अ़.स.) की एक रवायत इस ह़क़ीक़त के तरफ़ इशारा करती है। अ़ली इब्ने मोह़म्मद इब्ने जह्म बयान करते हैं:
एक दफ़अ़् मैं मामून के दरबार में था और इमाम रज़ा (अ़.स.) भी ह़ाज़िर थे। मामून ने आप (अ़.स.) से पूछा: ऐ फ़र्ज़न्दे रसूल! क्या तुम येह नहीं कहते कि तमाम अम्बिया (अ़.स.) मअ़्सूम थे? फिर उसने इमाम रज़ा (अ़.स.) से पिछले अम्बिया (अ़.स.) के बारे में कुछ सवालात पूछे ख़ास तौर पर ह़ज़रत आदम (अ़.स.) के बारे में, फिर इमाम (अ़.स.) से फ़रमाया: आप का ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) के बारे में क्या कहना है? जब उसने अपने अल्लाह से सवाल किया कि ऐ मेरे रब मुझे दिखा कि तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करेगा? तो अल्लाह ने उससे पूछा: क्या तुम ईमान नहीं रखते?
इमाम रज़ा (अ़.स.) ने जवाब दिया: अल्लाह तआ़ला ने ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) को वह़ी की कि मैं अपने बन्दों में से एक ख़लील बनाना चाहता हूँ और अगर वोह बन्दा मुझसे पूछे कि मैं मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करूँगा? फिर मैं उसके सवाल का जवाब दूँगा। ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) ने सोचा कि शायद मैं ही अल्लाह का ख़लील हूँ। तो उन्होंने पूछा: ऐ मेरे रब! मुझे दिखा तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करेगा? अल्लाह ने उससे पूछा: क्या तुम ईमान नहीं रखते? ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) ने जवाब दिया: हाँ। लेकिन मैं यक़ीन करना चाहता हूँ कि मैं आप का दोस्त हूँ।
अगरचे येह रवायत मुख़्तलिफ़ किताबों मसलन “उ़यूने अख़बार अर्रेज़ा (अ़.स.)”, “तफ़सीरुल बुरह़ान” और “तफ़सीरे नूरुस्सक़लैन” में मौजूद है, लेकिन फिर भी येह शक से ख़ाली नहीं है। अ़ल्लामा तबातबाई (अ़.र.) अपनी तफ़सीर अल-मीज़ान, जि.१, स.१४७ पर लिखते हैं कि अम्बिया की इ़स्मत के बारे में अ़ली इब्ने जह्म का जवाब (कि वोह पैदाईश से ही मअ़्सूम हैं), शीआ़ मज़हब के उ़मूमी नज़रीये से मुत्तफ़िक नहीं है। लेहाज़ा येह रवायत शक-ओ-शुब्ह से पाक नहीं है।
ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) उनके शीओ़ं में से हैं
क़ुरतुबी अपनी तफ़सीर में लिखते हैं कि अल-कलबी और अल-फ़ारेअ़् कहते हैं कि जान लो कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.), पैग़म्बरे अकरम (स.अ़.व.आ.) के शीओ़ं में से हैं। यही वजह है कि लफ़्ज़ से मुराद ह़ुज़ूर (स.अ़.व.आ.) हैं। जबकि इब्ने अ़ब्बास और मुजाहिद के नज़्दीक लफ़्ज़ में इस्मे ज़मीर से मुराद ह़ज़रत नूह़ (अ़.स.) हैं।
(तफ़सीर जामेउ़ल अह़कामुल क़ुरआन, जि.१, स.९१)
तबरी लिखते हैं कि बअ़्ज़ अ़रबी अदीबों के नज़्दीक इस आयत का मतलब येह है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.), रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) के शीओ़ं में से हैं।
(तफ़सीरे तबरी, जि.१, स. ६८)
फ़ख़रुद्दीन राज़ी अपनी तफ़सीर में लिखते हैं कि लफ़्ज़ का ज़मीर किसकी तरफ़ इशारा करता है? इस सिलसिले में दो आरा हैं। पहला और ज़्यादा वाज़ेह़ क़ौल येह है कि इससे मुराद ह़ज़रत नूह़ (अ़.स.) हैं और कल्बी के नज़्दीक इस से ह़ुजूर (स.अ़.व.आ.) मुराद हैं।
(तफ़सीरे कबीर, जि.१, स.१२६)
अ़ल्लामा तबातबाई (अ़.र.) कहते हैं कि शीआ़ से मुराद “एक गिरोह” या किसी के नक़्शे क़दम पर चलने वाला है। मुख़्तसर येह कि अगर कोई किसी के अ़मल की पैरवी करता है और उसकी तक़लीद करता है तो वोह उस शख़्स का शीआ़ हो जाता है ह़ालाँकि पैरोकार और रह़नुमा मुख़्तलिफ़ अदवार में रहते हैं। जैसा कि अल्लाह तआ़ला सूरह सबा, आयत ५४ में फ़रमाता है: “और हम उनके और उनके दरमियान पर्दा डाल देंगे जिस तरह़ वोह चाहते थे जैसा कि हम ने उनसे पहले वालों के लिए किया था।”
इमाम जअ़्फ़र सादिक़ (अ़.स.) इस आयत के बारे में फ़रमाते हैं:
इसका मतलब है कि ह़ज़रत इब्राहीम (अ़.स.) इमाम अ़ली (अ़.स.) के शीओ़ं में से हैं।
(तफ़सीरे बुरह़ान, जि.४, स.२०)
अह्ले सुन्नत के बहुत से उ़लमा का ख़याल है कि येह आयत इमाम अ़ली (अ़.स.) के बारे में नाज़िल हुई है। फ़ख़रुद्दीन राज़ी कहते हैं कि हम तक बहुत सी रवायात पहुँची है कि येह आयत ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के बारे में है।
इस सिलसिले में तीसरी रवायत कहती है कि येह आयत ख़ास तौर पर इमाम अ़ली (अ़.स.) की तरफ़ इशारा करती है। जिस रात पैग़म्बर अकरम (स.अ़.व.आ.) मक्का से हिजरत करके ग़ारे ह़ेरा की तरफ़ रवाना हुए तो इमाम अ़ली (अ़.स.) अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे। जनाबे जिब्रईल आप के सर के पास खड़े थे जबकि जनाबे मीकाईल आप के पाँव के पास खड़े थे। जबकि ह़ज़रत जिब्रईल पुकार रहे थे, “शानदार! आप जैसा कोई नहीं, ऐ अबू तालिब के बेटे! अल्लाह, फ़रिश्तों में फ़ख़्र मह़सूस कर रहा है।” उस वक़्त येह आयत नाज़िल हुई।
(तफ़सीरे कबीर, जि.१, स.२२३)
अबू ह़यान अ़न्दलूसी बयान करते हैं कि येह आयत उस वक़्त नाज़िल हुई जब रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) ने लोगों की अमानतें इमाम अ़ली (अ़.स.) को वापस करने और उनके क़र्ज़ की अदाएगी की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। येह वोह वक़्त था जब वोह मक्का से हिजरत कर रहे थे और इमाम अ़ली (अ़.स.) को अपने बिस्तर पर सोने का ह़ुक्म दिया था।
(तफ़सीर बह़्रुल मुह़ीत)
शहाबुद्दीन आलूसी कहते हैं: शीआ़ फ़िर्क़ा और हम में से बअ़्ज़ का ख़याल है कि येह आयत इमाम अ़ली (अ़.स.) की शान में नाज़िल हुई है जब उन्होंने हिजरत की रात में रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) के बिस्तर पर सोने का ह़ुक्म दिया गया था।
(तफ़सीरे रूह़ुल मआ़नी, जि.१, स.९७, तफ़सीरे जामेउ़ल अह़कामुल क़ुरआन, जि.१, स.२१)
किताब का इ़ल्म किसके पास है?
अ़ब्दुल्लाह बिन अ़ता कहते हैं कि एक दफ़अ़् में इमाम मोह़म्मद बाक़िर (अ़.स.) के साथ मस्जिद में था। उस वक़्त मेरी नज़र अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम के बेटे पर पड़ी। मैंने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा,“क्या येह लड़का वोह नहीं है जिसके पास किताब का इ़ल्म है?” उस वक़्त इमाम (अ़.स.) ने फ़रमाया: “येह सिर्फ़ अ़ली इब्ने अबी तालिब के पास है।”
(यनाबीउ़ल मवद्दह, स.१०२; क़ुरतुबी अपनी तफ़सीर जामेउ़ल अह़कामुल क़ुरआन, जि.१, स.३३६)
इब्ने अ़ब्बास रवायत करते हैं कि जुम्ला सिर्फ़ ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के लिए क़ाबिले इत्तेलाक़ है (जैसा कि और कोई और नहीं) क्योंकि आप (अ़.स.) आयात की तफ़सीर, तफ़सीर और मन्सूख़ शुदा आयात से वाक़िफ़ हैं।
अबू ह़य्यान अ़न्दलूसी लिखते हैं: क़तादा कहते हैं कि इस आयत से अ़ब्दुल्लाह बिन सलाम और तमीम दारी मुराद है, जबकि मुज़ाहिद लिखते हैं कि इससे मुराद सिर्फ़ अ़ब्दुल्लाह बिन सलाम है। ता हम इन दोनों उ़लमा की आरा को क़बूल नहीं किया जा सकता इसलिए कि तमाम उ़लमा का इस पर इज्माअ़् है कि येह आयत मक्का मुकर्रमा में नाज़िल हुई जबकि अ़ब्दुल्लाह बिन सलाम मदीना के रहने वाले थे। जनाबे मोह़म्मद इब्ने ह़नफ़िया और इमाम बाक़िर (अ़.स.) कहते हैं कि इस आयत से मुराद इमाम अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़.स.) हैं।
(तफ़सीरे बह़रुल मुह़ीत, जि.१, स.१२५)
आलूसी कहते हैं कि जनाबे मोह़म्मद इब्ने ह़नफ़िया और इमाम बाक़िर (अ़.स.) दोनों इसके क़ाएल है कि इस आयत में जिस शख़्स का ज़िक्र किया गया है, वोह कोई और नहीं बल्कि ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) हैं।
(तफ़सीरे रूह़ुल मआ़नी, जि.१, स.१५८)
मुल्ला मोह़सिन फ़ैज़ काशानी अपनी तफ़सीर अल-साफ़ी में लिखते हैं कि एक शख़्स ने इमाम अ़ली (अ़.स.) से आप के बलन्द मर्तबे के बारे में पूछा। जवाब में अ़ली (अ़.स.) ने आयत की तिलावत की और फ़रमाया कि, “मैं वोह शख़्स हूँ।”
(तफ़सीरे साफ़ी, जि.१, स.११२)
अ़ली बिन इब्राहीम क़ुम्मी (अ़.र.) ने इमाम सादिक़ (अ़.स.) से रवायत नक़्ल की है: “किताब का मुकम्मल इ़ल्म रखने वाला अमीरुल मोअ्मेनीन अ़ली (अ़.स.) है। लोगों ने उससे पूछा: कौन अफ़ज़ल है? क्या पूरी किताब का इ़ल्म रखने वाला उस शख़्स से अफ़ज़ल है जिसके पास किताब के इ़ल्म का कुछ ह़िस्सा है? इमाम (अ़.स.) ने जवाब दिया: किताब के मुकम्मल इ़ल्म का किताब के इ़ल्म के कुछ ह़िस्से से मवाज़ना पूरे समन्दर की तरह़ है जैसे मक्खी के बाज़ू पर समन्दर से पानी के एक क़तरे के मुक़ाबले में।”
(तफ़सीरे क़ुम्मी, जि.१, स.१५)
अ़याशी अपनी तफ़सीर में बयान करते हैं कि लोगों ने इमाम बाक़िर (अ़.स.) से पूछा कि अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम का ख़याल है कि आयत “किताब का इ़ल्म रखने वाला” से मुराद उनके वालिद हैं। इमाम (अ़.स.) ने फ़रमाया: वोह झूठ बोल रहा है। किताब का मुकम्मल इ़ल्म सिर्फ़ ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) को है।
(तफ़सीरे अ़याशी, स.२२०)
यहाँ पर हम आयतुल्लाह ख़ूई (अ़.र.) के इस क़ौल पर गुफ़्तुगू करना चाहते हैं जिस का ज़िक्र उनकी तफ़सीर “अल बयान फ़ी तफ़सीरिल क़ुरआन” में किया गया है। वोह लिखते हैं: क़ुरआन करीम के मोअ़्जिज़ाना अल्फ़ाज़ के ज़रीए़ इमाम अ़ली (अ़.स.) की गवाही, दीगर फ़सीह़-ओ-बलीग़ दलाएल के बावजूद, बज़ाते ख़ुद उनकी ज़ानशीनी की एक आज़ाद दलील है। क़ुरआन करीम वह़ीए एलाही है और उसका बयान जिहालत पर मबनी नहीं है। इमाम अ़ली (अ़.स.) फ़साह़त-ओ-बलाग़त के मालिक और तमाम अअ़्ला सेफ़ात के मज़हर है। वोह बेहतरीन नमूना है और मअ़्रेफ़ते एलाही के अअ़्ला तरीन मक़ाम पर है। दोस्त और दुश्मन दोनों उनकी फ़साह़त-ओ-बलाग़त की गवाही देते हैं। उन्होंने आप (अ़.स.) के मक़ाम और दौलत की वजह से उनकी अ़ज़मत की गवाही नहीं दी। येह कैसे मुमकिन है जब इमाम अ़ली (अ़.स.) तक़्वा का निशान थे और दुनिया की तरफ़ झुकाव नहीं रखते थे, आप (अ़.स.) ने ख़ेलाफ़त को ठुकरा दिया था जब उसे इस शर्त के साथ पेश किया गया था कि वोह उमूरे अबू बक्र और उ़मर की तरह़ अन्जाम दें और उससे मुँह फेर लिया। येह इमाम अ़ली (अ़.स.) हैं जिन्होंने मुआ़विया की (नाजाएज़) गवर्नरी को चन्द दिनों के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया हालाँकि वोह मुआ़विया को उसके ओह्दे से हटाने के ख़तरात से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। पस इमाम अ़ली (अ़.स.), पैग़म्बरे अकरम (स.अ़.व.आ.) की रेसालत और क़ुरआन करीम के मोअ़्जेज़ाना कलेमात की बेहतरीन शहादत हैं।
(अल बयान फ़ी तफ़सीरिल क़ुरआन, स.९१)
बअ़्ज़ लोगों का ख़याल है कि येह आयत उन लोगों के बारे में हैं जिन्होंने इस्लाम क़बूल किया जैसे अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम, तमीमदारी और सलमान फ़ारसी। लेकिन येह क़ौल क़ाबिले क़बूल नहीं हैं क्योंकि येह सूरह मक्का मुकर्रमा में नाज़िल हुई थी जबकि मज़कूरा बाला लोगों ने मदीना में इस्लाम क़बूल किया था। अबू हयान अ़न्दलूसी कहते हैं कि तमाम उ़लमा का इस पर इज्माअ़ है कि येह सूरह मक्का में नाज़िल हुई है। तबरी लिखते हैं कि अबू बशर कहते है कि मैंने अबू सई़द ख़ुदरी से पूछा कि क्या येह आयत अब्दुल्लाह इब्ने सलाम की तरफ़ इशारा करती है? उसने कहा नहीं। येह सूरह मक्का मुकर्रमा में नाज़िल हुई थी फिर उसका ज़िक्र अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम की तरफ़ कैसे हो सकता है?
(जामेउ़ल बयान, स.१०४)
क़ुरतुबी लिखते हैं कि इब्ने जबीर कहते हैं कि येह सूरह मक्का मुकर्रमा में नाज़िल हुई जब अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम ने मदीने में इस्लाम क़बूल किया। येह आयत उस की तरफ़ इशारा नहीं कर सकती।
(जामेउ़ल अह़कामुल क़ुरआन, जि.९, स.३३६)
शहाबुद्दीन आलूसी ने उ़लमा के मुन्दर्जा बाला आरा पर एअ़्तेराज़ किया है। वोह कहते हैं कि इसमें शक नहीं कि येह सूरह मक्का मुकर्रमा में नाज़िल हुई लेकिन उसकी चन्द आयात मदीना में भी नाज़िल र्हुइं। और येह आयत ख़ास मदीना में नाज़िल हुई। लेकिन आलूसी के इस क़ौल की ताई़द में कोई रवायत मौजूद नहीं है इसलिए उसके दअ़्वे पर पानी नहीं पड़ता।
शअ़्बी ने भी साफ़ इन्कार किया है कि क़ुरआन की कोई आयत अ़ब्दुल्लाह इब्ने सलाम के ह़क़ में नाज़िल हुई है।
(तफ़सीरे कबीर, जि.१, स.७०)
फ़ख़रुद्दीन राज़ी लिखते हैं “इन दो आदमियों की बातों से नबूवत क़ाएम नहीं हो सकती जो झूठ बोलने से ख़ाली न हों।”
क्या अबू बक्र की ख़ेलाफ़त को मुसलमानों का इज्माअ़् ह़ासिल था? (अह्ले तसन्नुन आ़लिम की…
रसूल (स.अ़.व.आ.) के ह़क़ीक़ी अस्ह़ाब कौन हैं? अह्ले तसन्नुन के यहाँ येह रवायत बहुत मशहूर…
वोह बह़्स जिस ने बहुत से लोगों को शीआ़ मज़हब में तब्दील कर दिया मुस्लिम…
बुज़ुर्गाने दीन की क़ुबूर पर तअ़्मीर क़ाएम करना सुन्नते सह़ाबा है। मुसलमानों में ऐसे बहुत…
क्या मअ़्सूमीन (अ़.स.) ने कभी भी लअ़्नत करने की तरग़ीब नहीं दी? जब अह्लेबैत (अ़.स.)…
दुश्मने अ़ली (अ़.स.) से बराअत ज़रूरी है इस्लाम में और ख़ुसूसन शीआ़ मकतबे फ़िक्र में,…