इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़़

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इब्तेदाइया:

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिरर्हीम

’’उद्ओ़ इला सबीले रब्बे-क बिलह़िक्मते वल मौए़ज़तिल ह-स-न-त व जादिलहुम बिल्लती हिया अह़सन’’

लोगों को अपने रब के रास्ते की तरफ़ हिकमत और उमदा नसीहत के साथ दावत दो और उनसे बेहतरीन अंदाज़ में इस्तेदलाल और मुबाहेसा करो। (सूरह नह्ल: आयत 125)

हम हर साल 8 शव्वाल बतौर यौमे ग़म मनाते हैं। आज से तक़रीबन 80 साल क़ब्ल यानी 1344 हिजरी 1926 ई. में उसी तारीख़ मदीन-ए-मुनव्वरा में जन्नतुल बक़ीअ़़ और मक्कए मोअ़ज़्ज़मा में जन्नतुल मुअ़ल्ला के मक़बरों और मज़ारात को मिसमार कर दिया गया। येह मज़ारात जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (अ़.स.), इमाम हसन (अ़.स.), इमाम ज़ैनुलआ़बेदीन (अ़.स.), इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ़.स.), इमाम जअ़्फ़र सादिक़ (अ़.स.) और दीगर औलाद, अज़वाज, असहाब-ओ-अक़रेबाए पैग़म्बर और शोहदाए राहे हक़ के थे। सबको तअ़ज्जुब होता है कि एक ऐसा मुल्क जहाँ के फरमांरवा ‘‘ख़ादिमे ह़रमैन शरीफ़ैन’’ कहलाने में फ़ख्र मह़सूस करते हैं किस तरह इस मज़मूम हरकत को गवारा कर सकता है। लेकिन येह एक ह़क़ीक़त है हमारा तअ़ल्लुक़ 30 वीं सदी से है और येह वाक़ेआ़़ भी उसी सदी से मुतअ़ल्लिक़ है इस वजह से इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़़ के मोहर्रेकात को सही तनाज़ुर में समझने के लिये हमें कुछ तफ़सीलात में जाना होगा जिनको हम 5 हिस्सों में तक़सीम कर सकते हैं।

  1. जन्नतुल बक़ीअ़ मोअर्रेख़ीन की नज़र में
  2. वहाबियत की इब्तेदा और फ़रोग
  3. तह़रीके ख़ेलाफ़त और जन्नतुल बक़ीअ़़
  4. इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़़ और इस्लामी रद्दे अ़मल
  5. ख़ुलासए कलाम हमारी ज़िम्मेदारियाँ।

जन्नतुल बक़ीअ़़ मोअर्रेख़ीन की नज़र में

बक़ीअ़़ के लफ़्ज़ी मअ़ना दरख़्तोँ का बाग़ है और तक़द्दुस की ख़ातिर इसको जन्नतुल बक़ीअ़ कहा जाता है। येह मदीना में एक क़ब्रस्तान है जिसकी इब्तेदा 3 शाबान 3 हिजरी को उस्मान बिन मज़ऊ़न के दफ़्न से हुई। इसके बाद यहाँ आंह़ज़रत के फर्ज़ंद ह़ज़रत इब्राहीम की तदफ़ीन हुई। आंहज़रत (स.अ़़) के दूसरे रिश्तेदार सफ़िया, आतेका और फ़ातेमा बिन्ते असद (अ़.स.) वालेदए अमीरुल मोमेनीन (अ़.स.) भी यहाँ दफ़्न हैं। तीसरे ख़लीफ़ा उ़स्मान जन्नतुल बक़ीअ़़ से मुलह़िक़ बाहर दफ़्न हुये थे। लेकिन बाद में इसकी तौसीअ़़ में इनकी क़ब्र भी बक़ीअ़़ का हिस्सा बन गई।

बक़ीअ़ में दफ़्न होने वालों को ऑंहज़रत खुसूसी दुआ़ में याद करते थे इस तरह बक़ीअ़़ का क़ब्रिस्तान मुसलमानों लिये एक तारीख़ी इम्तेयाज़ व तक़द्दुस का मक़ाम बन गया।

सातवीं सदी हिजरी में उ़मर बिन जबीर ने अपने मदीना के सफ़र नामे में जन्नतुल बक़ीअ़़ में मुख़्तलिफ़ क़ुबूर पर तअ़्मीर शुदा क़ुब्बों और गुम्बदों का ज़िक्र किया है जिसमें हज़रत इब्राहीम (अ़.स.), फ़रज़न्दे ऑंहज़रत (स.अ़.व.व.)अ़क़ील इब्ने अबी तालिब (अ़.स.) अ़ब्दुल्लाह बिन जअ़्फ़रे तय्यार (अ़.स.), उम्महातुल मोमेनीन, अ़ब्बास बिन अ़ब्दुल मुत्तलिब (अ़.स.) की क़ुबूर शामिल हैं। क़ब्रिस्तान के दूसरे हिस्से में हज़रत इमाम हसन (अ़.स.) की क़ब्र और अ़ब्बास बिन अ़ब्दुल मुत्तलिब की क़ब्र के पीछे एक हुजरा, मौसूम ब बैतुल हुज़्न है जहाँ जनाबे सय्यदा जाकर अपने वालिद को रोती थीं। तक़रीबन एक सौ (100) साल बाद इब्ने बतूता ने भी अपने सफ़र नामे में बक़ीअ़़ का जो ख़ाका बनाया है वह उस से कुछ मुख़्तलिफ़ नहीं था। सल्तनते उ़स्मानी ने भी मक्का और मदीना की रौनक़ में इज़ाफा किया और 1878 ई. के दौरान दो अंग्रेज़ी सय्याहों ने भेस बदल कर इन मुक़ामात का दौरा किया और मदीना को इस्तानबूल के मुशाबेह एक ख़ूबसूरत शहर क़रार दिया। (हवाला: शीआ़ न्यूज़ डाट काम) इस तरह गुज़श्ता 1300 साल के दौरान जन्नतुल बक़ीअ़ का क़ब्रिस्तान एक क़ाबिले एह़़तेराम जगह रही जो वक़्तन फ़वक़्तन तअ़्मीर और मरम्मत के मरहलों से गुज़रती रही।

वहाबियत: इब्तेदा और फ़रोग़

13वीं सदी हिजरी के अवाएल में ह़िजाज़ के सियासी हालात, ने पल्टा खाया और जन्नतुल बक़ीअ़ भी उनकी ज़द से मह़फ़ूज़ न रह सकी, इसकी बुनियादी वजह वहाबियत है। वहाबियत का पसमन्ज़र क्या है? इसकी इब्तेदा नज्द में हुई, उस वक़्त जज़ीरा नुमाए अरब में दो ताकतें थीं एक नज्द में और दूसरी हिजाज़ में शुमाल में तुर्की की सल्तनते उ़स्मानिया क़ायम थी जिस में शाम, इराक़, उर्दुन और फ़िलिस्तीन भी शामिल थे।

1115 हिजरी में मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब नामी शख़्स पैदा हुआ, वह मदीनए मुनव्वरा में इब्तेदाई तअ़लीम हासिल करने के बाद बसरा, बग़दाद, हमदान और क़ुम गया और हुसूले इल्म के साथ साथ दर्स-ओ-तदरीस में मसरूफ़ रहा, पहरे उसने हंबली नज़रियात को क़बूल किया फिर ह़ंबली बैअ़त से आज़ाद होकर अह़ादीस में खुद इस्तेंबात (यानी तफ़सीर बिर्राय) का दावा किया। नतीजतन उसको मुख़ालेफ़ाना नज़रियात के परचार की पादाश में बस्ती से निकाल दिया गया। उस वक़्त नज्द में मोहम्मद बिन सऊ़द नामी शख़्स के ज़ेरे असर क़बीलों का दारोमदार हमसाया बस्तियों में लूटमार करना और अपने इलाक़े की हुदूद को बढ़ाना था। मोहम्मद बिन सऊ़द ने मोहम्मद बिन अ़ब्दुल वहाब को अपने क़बीले में पनाह दी और दोनों के दरमियान वहाबियत के फ़रोग़ और परचार का मुआ़हेदा हुआ। मोहम्मद बिन अ़ब्दुल वहाब ने दिया उसके ??? जाहिल अ़रबों को अपनी तरफ़ माएल करने वहाबियत के नाम जो अ़क़ीदा दिया उससे इस्लाम में क़ब्र परस्ती शिर्क है। क़ुबूर पर सायबान, छत, क़ुब्बा, गुम्बद बनाना नाजायज़ ही नहीं बल्कि कुफ़्र है और ज़ियारते क़ुबूर के लिये जाना नाजायज़ है। मुआ़हेदे की रू से मोह़म्मद बिन अ़ब्दुल वहाब लोगों को वहाबियत की तरफ़ माएल करता और उनको इब्ने सऊ़द की ह़िमायत पर तय्यार करता और येह लोग इब्ने सऊ़द की सरकरदगी में हमसाया इलाक़ों पर हमला करते। इस तरह इब्ने सऊ़द ने हिजाज़ के वसीअ़ इलाक़े पर क़ब्ज़ा जमा लिया और मोहम्मद बिन अ़ब्दुल वहाब को अपना क़ाज़ी मुक़र्रर किया। ख़ुद मोहम्मद बिन सऊ़द ने भी वहाबी नज़रियात को क़ुबूल कर लिया और इस तरह वहाबियत को हिजाज़ में सरकारी मज़हब का दर्जा मिल गया। मोह़म्मद बिन सऊ़द के इन्तेक़ा़ल पर उनके भाई अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ बिन सऊ़द ने भी वह मुआ़हेदा बरक़रार रखा और इस तरह लश्कर कुशी जारी रही। (सय्यद अ़ली हैदर नक़वी: अदियाने आ़लम और इस्लाम) यहाँ येह नुक्ता क़ाबिले ज़िक्र है कि ज़ियारते क़ुबूर के जवाज़ के ज़िम्न में हदीसे रसूल (स.अ़.व.व.) और तवस्सुले असहाब की 36 रिवायात मौजूद हैं, मज़हबे अर्बा़ के 40 उ़लमा ने ज़ियारते क़ब्रे नबी (स.अ़.व.व.) के आदाब और ज़ियारतें नक़्ल की हैं। सारे आ़लमे इस्लाम में अंबिया, सहाबा, ताबई़न, उ़लमा और औलिया की क़ब्रें मुख़्तलिफ़ जगह मौजूद हैं और मरजए ख़लाएक़ हैं। (अलामा तालिब जौहरी) कुरआन के सूरह हज की 32वीं आयत में शआ़एरुल्लाह की तअ़्ज़ीम से मुतअ़ल्लिक़ सरीह़ अहकाम मौजूद हैं। इन तमाम दलाएल के बावजूद बफ़र्ज़ मोहाल अ़क़ीदए वहाबियत को क़ाबिले क़ुबूल समझा जाये तो इसका मतलब ये होगा के गुज़श्ता 14 सदियों में सारे आ़लमे इस्लाम में जहाँ जहाँ क़ुबूर की ज़ियारत, एहतेराम, तअ़्मीर मरम्मत और देखभाल की गई वह तमाम अअ़्माल शिर्क, कुर्फ़ और बिदअ़त के ज़ुम्रे में शुमार होंगीं यअ़्नी येह क्रेडिट मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब को जायेगा के 14 सौ साल में पहली दफ़ा उसने इस बिदअ़त की निशानदही किया। एक और क़ाबिले ज़िक्र नुक्ता येह है कि मोहम्मद बिन अ़ब्दुल वहाब ने इन नज़रियात को अपने वालिद के नाम की निस्बत से वहाबियत का नाम दिया जबकि उनका इस से कोई तअ़ल्लुक नहीं था। अलबत्ता ख़ुद उनके अपने नाम मोहम्मद की निस्बत से येह अ़क़ीदए मोहम्मदीया कहलाता। ज़ाहिर है ऐसा करने से उनका मक़सद ही फ़ौत हो जाता। एक और अहम नुक्ता क़ाबिले ग़ौर है कि 19 वीं और 20 वीं सदी में इस्लामी दुनिया में एक हलचल मची रही येह एक इत्तेफ़ाक़ है कि ऐ़़न उस ज़माने में जब हिजाज़ में वहाबियत जड़ पकड़ रही थी दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी अहयाए इस्लाम के नाम पर और तहरीकें भी कार फ़रमा थीं बतौर मिसाल सूडान में महदवियत, लीबिया में सुनोसी, नाइजीरिया में फुलाफी, इंडोनेशिया में पादरी और हिन्दुस्तान में अहमदिया या क़ादियानियत क़ाबिले ज़िक्र हैं। बज़ाहिर एह़याए इस्लाम के नाम पर येह तहरीकें इस्लाम से मरकज़ गुरेज़ी में ज़्यादा मसरूफ़ थीं बजाए इसके के हम इस मसअले को इस्लाम के ख़िलाफ़ यहूदियों की साज़िश कह कर ख़त्म कर दें जरूरी है कि इस मामले में तह़क़ीक़ करें और इन तहारीक के मंबा और मक़ासिद तक पहुँचे। (आक्सफ़र्ड इन्साइक्लोपीडिया आफ़ माडर्न इस्लामिक वर्ल्ड सफ़ह़ा 13) मुस्लिम मुमालिक में फ़िक्री इन्तेशार और बदनज़्मियों के हवाले से हुकूमते बर्तानिया के एक जासूस हमफ़्रे का नाम भी लिया जाता है। वहाबियत के फैलाव और तब्लीग़ के सिलसिले में इसकी कार रवाइयाँ सरे फ़ेहरिस्त हैं जो ‘‘हमफ़्रे के ए़तेराफ़ात’’ की सूरत में क़लमबंद हैं। इन ए़तेराफ़ात में शेख मोहम्मद बिन अ़ब्दुल वहाब के हमफ़्रे से रवाबित का तफ़सीली ज़िक्र है कि किस तरह उसने शेख़ मोहम्मद को इस्लामी अ़क़ाएद से मुन्हरिफ़ किया। साथ साथ वह बर्तानवी वज़ारते नौआबादियात को इराक़ के वाक़ेआ़त से भी आगाह करता रहा और वहाँ के लिये एक 6 नुकाती लाहे़अए अ़मल मुरत्तब किया। इन दस्तावेज़ात की इस्तेनाद से क़त्ए़ नज़र येह बात क़ाबिले ग़ौर है कि अग़यार किस तरह हमारी अंदरूनी ख़लफ़ेशार से फ़ायदा उठाने की कोशिश करते रहे हैं। जंगे अ़ज़ीम दुव्वुम के दौरान येह दस्तावेज़ात जर्मनों के हाथ लगीं तो उन्होनें बर्तानिया के ख़िलाफ़ परोपगंडे के लिये जर्मनी रिसाला इसपीगल में शाए किया बाद में एक फ़्रान्सीसी रिसाले ने उनको शाए कर दिया। एक लेबनानी दानिशवर ने इन याद दाश्तों के अ़रबी तर्जुमे को रिफ़ाहे आ़म की ग़रज़ से छाप दिया। अंजुमने नौजवानाने पाकिस्तान ने गार्डन टाउन लाहौर से उर्दू में शाए करवाया है। (ब शुक्रिया सय्यद मोह़म्मद इफ़्तेख़ार अ़ली)

अ़रब अ़जम कशमकश और तह़रीके ख़िलाफ़त:

ह़िजाज़ में वहाबियत  की तह़रीक के नतीजे में पैदा होने वाली अफ़रा तफ़री में मग़रिबी ताक़तों ने एक नया फ़ित्ना खड़ा कर दिया। अ़रबों और अ़जमियों के इख़्तेलाफ़ात से फ़ाएदा उठा कर बर्तानिया और फ्रांस ने 1916 ई़. और 1918 ई़. के दरमियान कर्नल लारेंस (जो आ़म तौर पर लारेंस आफ़ अ़राबिया कहलाता है) की क़यादत में शाम और इराक़ के अ़रबों को तुर्की की सल्तनते उ़स्मानिया के ख़िलाफ़ सफ़ आरा कर दिया मगर जंग के इख़्तेताम पर (जो अ़रब इंक़ेलाब से मौसूम हुई) बर्तानिया और फ़्रांस ने अ़रबों को धोका देकर शाम, इराक़, फ़िलिस्तीन और उर्दुन को बाहम तक़सीम कर लिया। इराक़, फ़िलिस्तीन और उर्दुन बर्तानिया के तसल्लुत या निगरानी में दिये गए और शाम पर फ़्रांस को ग़लबा मिल गया। यमन और नज्द नीम आज़ाद हुकूमतें बन गईं। ह़िजाज़ में जिस का नज्द के साथ दीरीना झगड़ा चल रहा था। शरीफ़ हुसैन एक छोटी सी मुम्लेकत का हुक्मरान था। जब अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ इब्ने सऊ़द को इत्मीनान हो गया कि बर्तानिया की तरफ़ से कोई मुज़ाहेमत न होगी तो नज्दियों ने ह़िजाज़ पर ह़मला कर दिया और सारे जज़ीरतुल अ़रब को अपने ख़ानदानी हवाले से सऊ़दी अ़रब का नाम दिया जो अब तक राएज है। वहाबियत के फ़रोग़ में नज्दियों की येह कामयाबी एक अहम संगेमील साबित हुई क्योंकि उनकी आ़लमे इस्लाम के मरकज़ मदीनए मुनव्वरा और मक्कए मोअ़ज़्ज़मा तक रिसाई हो गई। अब तुर्की में एक नई सियासी सूरते हाल पैदा हुई। 1934 में तुर्की रहनुमा मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने अ़रबों के मुआ़नेदाना रवैय्यों से तंग आकर और अपनी सल्तनती मुसालेह के तहत सुल्तान मोहम्मद की मअ़ज़ूली के साथ ओ़हदए ख़िलाफत को भी ख़त्म कर दिया। गो कि तुर्क हुक्मरानों के लिये एक रस्मी अ़ह़्द था लेकिन येह आ़लमे इस्लाम के इत्तेह़ाद और आफ़ाक़ियत की अ़लामत था और क़र्ने अव्वल की ख़िलाफ़तों से अपना तसल्सुल बाक़ी रखा था। मुसलमानाने हिन्द के लिये जिनको तुर्की में ख़िलाफ़त से एक ज़ेह्नी हमाहंगी थी तुर्क हुकूमत का येह फ़ैसला नागवार गुज़रा और तुर्की में ख़िलाफ़त के एह़्या के लिये तह़रीके ख़िलाफ़त का आगाज़ किया। लेकिन जब इस मुहिम में नाकाम रहे तो ख़िलाफ़त कमेटी ने अपनी तवज्जोह ह़िजाज़ पर मर्कूज़ कर दी जहाँ अब अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ इब्ने सऊ़द की हुकूमत थी। अक्तूबर 1924 को मौलाना मोह़म्मद अ़ली जौहर की सरबराही में तह़रीके ख़िलाफ़त कमेटी की जानिब से सुल्तान अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ इब्ने सऊ़द को एक तार भेजा गया जिस में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि चूंकि ह़िजाज़ दुनियाए इस्लाम का मरजा है वहाँ कोई इन्फ़ेरादी शाही क़ायम नहीं हो सकती बल्कि ऐसी जम्हूरियत क़ायम हो जो ग़ैर मुस्लिम अग़यार के असर से पाक हो। इसके जवाब में सुल्तान इब्ने सऊ़द ने लिखा कि ह़िजाज़ की हुकूमत ह़िजाज़ियों का हक़ है लेकिन आ़लमे इस्लाम के जो हुक़ूक़ ह़िजाज़ से मुतअ़ल्लिक़ हैं उनके लेह़ाज़ से ह़िजाज़ आ़लमे इस्लामी का है और इस ज़िम्न में यक़ीन दिलाया के आख़री फ़ैसला दुनिया-ए-इस्लाम के हाथ में होगा। येह तो तारीख़ ही साबित करेगी के इस वअ़्दे में कितनी सदाक़त थी। (सैय्यद मह़मूदुल ह़सन रिज़वी)

इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़़:

आ़लमे इस्लाम में अफ़रा तफ़री के मुतज़क्केरा तारीख़ी अ़वामिल ने अ़ब्दुल अ़ज़ीज़ इब्ने सऊ़द को ह़िजाज़ पर पेश क़दमी का मौक़ा फ़राहम कर दिया और तमाम यक़ीन दहानियों को नज़रअंदाज़ करते हुये जनवरी 1936 ई. में सुल्तान इब्ने सऊ़द ने ह़िजाज़ पर अपनी हाकेमियत का ऐलान कर दिया। वहाबियत जो अब रियासती मज़हब बन गई थी बज़ोरे शमशीर अह्ले ह़िजाज़ पर थोपी जा रही थी सऊ़दी हमलावर जब मदीनए तय्यबा में दाख़िल हुए तो उन्होंने जन्नतुल बक़ीअ़़ और हर वह मस्जिद जो उनके रास्ते में आई मुन्हदिम कर दिया और सिवाए रौज़ए रसूल (स.अ़.व.व.) के किसी क़ब्र पर क़ुब्बा बाक़ी न रहा। आसार ढाए गए अक्सर क़ब्रों की तावीज़ और सब की लौहें (तख़्ती) तोड़ दी गईं। इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़़ की ख़बर से आ़लमे इस्लाम में रंज-ओ-ग़म की एक लहर फ़ैल गई सारी दुनिया के मुसलमानों ने एह्तेजाजी जल्से किये और क़रारदादें पास कीं जिसमें सऊ़दी जराएम की तफ़सील दी गई। आने वाले सालों में इराक़, शाम और मिस्र से हज और दीगर उमूर के लिये आने वालों पर पाबंदी लगा दी गई कि वह वहाबियत क़ुबूल करेंगे वरना उनको निकाल दिया जाएगा। हज़ारों मुसलमान वहाबियों के मज़ालिम से तंग आकर मक्का और मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये। मुसलमानों के मुसलसल एह़्तेजाज पर सऊ़दी हुक्मरानों ने मज़ारात की मरम्मत की यक़ीन दहानी की येह वअ़दा आज तक पूरा न हो सका। इस ज़िम्न में तह़रीके ख़िलाफ़त कमेटी की कार कर्दगी भी मायूसकुन रही। मसलकी इख़्तेलाफ़ात की वजह से ख़िलाफ़त कमेटी कोई मज़बूत मौक़फ़ नहीं इख़्तेयार कर सकी और यूं येह कमेटी पाश पाश हो गई और येह मुआ़मला ख़त्म हो गया। (सय्यद हसन रियाज़, कराची युनिवरसिटी)

ऐसा महसूस होता है कि जन्नतुल बक़ीअ़ के मज़ारात की तअ़्मीर की तह़रीक को जिसमें इब्तेदाअन शीआ़़ सुन्नी सब बराबर के शरीक थे वक़्त गुज़रने के साथ गुज़श्ता 7 दहाइयों यानी 70 साल में हमारे सुन्नी भाइयों ने भुला दिया और बिलआख़िर येह सिर्फ़ अह्ले तशय्यो की ज़िम्मेदारी बन कर रह गया है और यूं गुज़श्ता 70 साल से हर साल 8 शव्वाल को हम यौमे इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़ मना कर अह्लेबैत (अ़.स.) से मवद्दत का फ़रीज़ा और अज्रे रिसालत अदा करते हैं।

खुलासए कलाम : हमारी ज़िम्मेदारियाँ

जन्नतुल बक़ीअ़ और आ़लमे इस्लाम के हवाले से हमें एक मुनज़्ज़म मुहिम चलानी होगी। दुनियाए अ़रब में मराक़श से इराक़ तक और अ़जम में तुर्की से इंडोनेशिया तक कौन सी मुम्लेकत है जहाँ बुर्ज़गाने दीन, सियासत दाँ और आ़म्मतुल मुसलेमीन के मज़ारात मरजए ख़लाएक़ नहीं हैं। बकी़अ़ कोई आम क़ब्रिस्तान नहीं है बल्कि बिला इख़्तेलाफ़े फ़िर्क़ा हर मुसलमान के लिये क़ाबिले एह़तेराम शख़्सियतें दफ़्न हैं। इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़ के वाक़आ़ के बावजूद, ह़ज़रत सरवरे काएनात के रौज़े का वजूद ख़ुद एक मोअ़्जेज़ा है और इस बात का सुबूत है कि जन्नतुल बक़ीअ़ का इन्हेदाम कोई फ़िक़ही मसअला नहीं था बल्कि एक सियासी ह़िक्मते अ़मली थी जिसकी बुनियाद ख़ानवादए अह्लेबैत (अ़.स.) से दीरीना अ़दावत थी। दुनिया में तमाम मुतमद्दिन अक़वाम अपने आबा-ओ-अज्दाद के आसार की हिफ़ाज़त के इन्तेज़ामात करते हैं। (आले मोहम्मद रज़्मी) मिस्र में उसवान डैम बनाया गया तो इस से मुतास्सिर होने वाले आसारए क़दीमा के खन्डहरात को दूसरी जगह मुंतक़िल करने के लिये यूनेस्को ने कसीर रक़्म खर्च की। अफ़ग़ानिस्तान के शहर बामियान में गौतम बुद्ध के मुजस्समों की तोड़ फोड़ पर सारी दुनिया बशमूल तौहीद परस्तों ने अपने ग़म-ओ-ग़ुस्से का इज़्हार किया। लेकिन हमारे आज़ाद मीडिया के लिये इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़ कोई क़ाबिले तवज्जोह मसअला नहीं है। आसारे क़दीमा की ह़िफ़ाज़त हुक़ूक़े निस्वाँ के ज़ुमरे में आती है। हमें सरनामए कलाम की आयत ‘‘ उद्ओ़ इला सबीले रब्बिक  के रहनुमा उसूल पर अ़मल करते हुये जज़्बात से बालातर होकर जन्नतुल बक़ीअ़़ की बहाली के लिये क़ाबिले अ़मल पालिसी इख़्तेयार करना होगी जिस के चन्द बुनियादी ख़ुतूत येह हैं।

  1. बैनुलअक़वामी तन्ज़ीम मसलन यूनेस्को, अ़रब लीग, मोतमर आ़लमे इस्लामी, तन्ज़ीमे इस्लामी कान्फ़रेन्स और आ़लमी इन्सानी ;व्प्ब्द्ध ह़ुक़ूक़ कमीशन को मुतवज्जेह किया जाये।
  2. अख़्बारात में आए दिन इस्लाम के हवाले से जदीदियत कुशादा दिली और सब्र-ओ-तहम्मुल की पालिसी अपनाने की तलक़ीन की जाती है इस पर अ़मल भी किया जाये।
  3. माज़ी के सियासी समाजी ओर जंगी जराएम पर मुवाख़ेज़ा एअ़्तेराफ़ और मुआ़फ़ी अब एक बैनुलअक़वामी ’’ तरीक़ए तलाफ़ी ‘‘ के तौर पर क़ाबिले क़ुबूल उसूल बन गया है इस उसूल का इतलाक़ इन्हेदामे जन्नतुल बक़ीअ़ के मुर्तकेबीन पर भी किया जाये।
  4. इन तमाम उमूर को पेशे नज़र रखते हुये तमाम अ़क़ीदे के संजीदा और इंसाफ़ पसन्द मुसलमान भाइयों के तआ़वुन से सऊ़दी हुक्मरानों से दरख़ास्त की जाये कि वोह इन मज़ारात को खुद बना दें या फिर आ़लमे इस्लाम को इसकी इजाज़त दें। ख़ुदा तमाम मुसलमानों को इस कारे ख़ैर में हिस्सा लेने की तौफ़ीक़ अ़ता फ़रमाए। आमीन!

हवाले:

  1. (हवाला: शीआ़ न्यूज़ डाट काम)
  2. (सय्यद अली हैदर नक़वी. अदियाने आ़लम और इस्लाम)
  3. (अ़ल्लामा मरहूम तालिब जौहरी)
  4. (आक्सफ़र्ड इन्साइक्लोपीडिया आफ़ माडर्न इस्लामिक वर्लड, सफ़ह़ा: 13)
  5. (सय्यद महमूदुल हसन रिज़वी)
  6. (सय्यद हसन रियाज़, कराची युनिवर्सिटी)
  7. (आले मोहम्मद रज़्मी) मज़्मून माहनामा इस्लाह़-8
  8. उस्ताद जअ़्फ़र सलमानी – आईने वहाबियत, दारुस्सक़ाफ़तुल इस्लामिया कराची, 1988 ई.
  9. हमफ़्रे के एअ़्तेराफ़ात- अन्जुमने नौजवानाने पाकिस्तान, गार्डन टाउन, लाहौर

 

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अमीरुल मोअ्‌मेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़.स.) के फ़ज़ाएल शीआ़ और सुन्नी तफ़सीर में जारुल्लाह…

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क्या मअ़्‌सूमीन (अ़.स.) ने कभी भी लअ़्‌नत करने की तरग़ीब नहीं दी?

क्या मअ़्‌सूमीन (अ़.स.) ने कभी भी लअ़्‌नत करने की तरग़ीब नहीं दी? जब अह्लेबैत (अ़.स.)…

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