हज़रत इमाम अली इब्ने मोहम्मद तक़ी (अलैहिमस्सलाम) का इस्मे गिरामी अली था और कुन्नियत अबुलहसन सालिस थी। आपके मशहूर अल्क़ाब में नजीब, मुर्तज़ा, आलिम, फ़क़ीह, नासेह, अमीन, तय्यब, नक़ी और हादी वग़ैरह का तज़्किरा किया जाता है। आपकी विलादत मदीनए मुन्व्वरा से कुछ दूर सुरय्या नामी एक मुक़ाम पर हुई। आपकी वालिदा जनाबे समाना ख़ातून हैं। अपका इन्तेहाई बचपन का ज़माना था, जब आपके पिदरे बुज़ुर्गवार को हाकिमे वक़्त ने बग़दाद तलब कर लिया था और उनको ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया। बाप के ज़ेरे साया तालीमो तर्बियत न पाने की बिना पर बाज़ लोगों को हमदर्दी का ख़्याल पैदा हुआ और उबैदुल्लाह जुनैदी को आप का मुअल्लिम (टीचर) क़रार दिया गया।
लेकिन चन्द दिनों बाद जब जुनैदी से बच्चे की रफ़्तारे तालीम के मुतल्लिक़ सवाल किया गया तो उसने कहा कि लोगों का ख़्याल है कि मैं उसे तालीम देता हूँ, ख़ुदा की क़सम मैं उनसे इल्म हासिल करता हूँ और उनका इल्म और फ़ज़्ल मुझसे कहीं ज़्यादा है। “वल्लाहे हाज़ा ख़ैरो अह्लिल अर्ज़े” (नुक़ूशे इस्मत बहवाला किताबुल वसीया)
ख़लीफ़ा ने यह तफ़्सीली जवाब बादशाहे रूम को भेज दिया। बादशाह इस जवाब से बहुत ख़ुश हुआ औऱ फ़ौरन मुसलमान हो गया और मरते दम तक मुसलमान ही रहा। (नुक़ूशे इस्मत)
अगरचे इमामे हादी (अलैहिस्सलाम) की ज़िन्दगी बहुत ही सख़्त और पोशीदा थी। और इमाम इल्मी काम अंजाम देने के लिए आज़ाद नहीं थे। इस लिहाज़ से इमाम मोहम्मद बाक़िर (अलैहिस्सलाम), इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) के ज़माने और आपके ज़माने में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ पाया जाता है। लेकिन इमाम इन हालात में भी मुनाज़रात, मुकातेबात, सवालों और शुबह़ात का जवाब देते और मुनहरफ़े कलामी मक़ातिब के मुक़ाबिल में सही फ़िक्र को बयान करते थे और बुज़ुर्ग रावी और मुहद्देसीन की तर्बीयत करते थे और इसलामी उलूम और मआरिफ़ की उनको तालीम देते थे। और उन्होंने उस बुज़ुर्ग मीरास को बाद वाली नस्लों तक मुन्तक़िल किया है।
इस गिरोह के दरमियान बहुत ही बरजस्ता शख़्सियात और इल्मी ओ मानवी चमकते हुए चेहरे नज़र आते हैं, जैसे फ़ज़्ल बिन शाज़ान, हुसैन बिन सईद अहवाज़ी, अय्यूब बिन नूह, अबू अली (हसन बिन राशिद), हसन बिन अली नासिर कबीर, अब्दुल अज़ीम हसनी (शहरे रै में मदफ़ून) और उस्मान बिन सर्द अहवाज़ी। इनमें से बाज़ ने किताबें भी तालिफ़ की हैं और उनकी इल्मी और मआशेरती ख़िदमतें रिजाल की किताबों में नक़्ल हुई हैं।
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