इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमायाः
अए फ़रज़न्दे शबीब! अगर तुम्हें किसी चीज़ पर रोना आए तो फ़रज़न्दे रसूल हुसैन इब्ने अली (अ.स.) पर गिरया करो।
इमाम अली बिन मुसा रज़ा (अ.स.) का एक लक़्ब ‘ग़रीबूल गु़र्बा’ है। इस की वजह ये है कि आप को बादशाहे वक्त ने अपने वतन मदीने से बहुत दूर ईरान में रखा जहाँ आप अपने अहलोअयाल और अहबाब से दूर यको तन्हा हो गए। आपको बनी अब्बास जो अहलेबैत के दुश्मन थे, के दरमियान ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी। ऐसे पूरआशोब हालात में आप(अ.स.) ने दीने अहलेबैत की तबलीग़ फ़रमाई और बनी अब्बास के कुछ नेक और सालेह अफराद आप के शिया बन गए। उन्हीं अफ़राद में एक मशहूर नाम रययान बिन शबीब का है जो एक कौ़ल के मुताबिक़ ख़लीफा़ मामून रशीद के मामू थे।हज़रत ने उनको बहुत से रमूज़े अहलेबैत सिखाए जिनको इब्ने शबीब ने रिवायत भी किया है। इन अहादीस में एक बहुत ही मशहूर रिवायत यह है कि फ़रज़न्दे रसूल ने इब्ने शबीब से अपने जददे मज़लूम, शहीदे कर्बला के मसाएब बयान किए और उनका ग़म मनाने की नसीहत फ़रमाई है। इस रिवायत को शियों के जय्यद उलमा ने अपनी अपनी किताबों में नक्ल किया है। इस रिवायत में इमाम ने एक मोमिन को ‘हुसैनी’ बनने का सलीका बताया है। पेश है इस रिवायत के कुछ अहम जुमलेः
अए फ़रज़न्दे शबीब! अगर तुम किसी पर रोना चाहो (और उसका ग़म तुमको रुलाये तो पहले ) फ़रज़न्दे रसूल हुसैन इब्ने अली (अ.स.) पर गिरया करो। इसलिये के इनको मज़लूमी की हालत में इस तरह ज़िबहा किया गया जैसे भेड़ को ज़िबहा किया जाता है।
(इतना ही नही बल्कि) उनके साथ उनके खानदान के ऐसे अठारह (18) अफ़राद को भी शहीद किया गया जिन्की दुनिया में कोई मिसाल नहीं है।
उनकी शहादत पर सातों आसमानों और ज़मीनों ने गिरया किया।
सय्यदुश्शोहदा की नुसरत के लिये चार हज़ार मलायका आसमान से ज़मीन की तरफ नाज़िल हुये। मगर जब वो कर्बला पहुँचे तो फरज़न्दे ज़हरा क़तल किया जा चुका था। तब से ये मलायका उनकी क़बरे मोतहहर की मुजावरी कर रहे हैं और गिरया व ज़ारी में मसरूफ़ हैं। ये उस दिन का इंतेज़ार कर रहे हैं जब हमारा क़ायम क़याम करेगा। ये उनके लश्कर में शामिल होंगे। इनका नारा होगा “या ल-सारतील हुसैन”।
अए फरज़न्दे शबीब! मेरे वालिद ने अपने जद से ये रिवायत की है कि जब इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत वाके़ए हुई तो आसमान से खू़न बरसा और सुर्ख़ मिट्टी बरसी।
अए फरज़न्दे शबीब! अगर तुम हुसैने मज़लूम पर इस क़दर गिरया करो के तुम्हारे रूख़सार आँसूओं से तर हो जायें तो ख़ुदा तुम्हारे तमाम गुनाह बख़्श देगा ख्वा़ह वो छोटे हों या बड़े, कम हो या ज़यादा।
अए फरज़न्दे शबीब! अगर तुम चाहते हो के खुदा से इस हाल में मुलाक़ात करो के तुम्हारे ज़िम्मे कोई गुनाह न हो तो मेरे जद हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत को जाओ।
अए फरज़न्दे शबीब! अगर तुम चाहते हो के जन्नत के उस आला दर्जे के मकान में रहो , जो रसूलउल्लाह (स.अ.व.व.) के जवार में है तो हुसैन(अ.स.) के क़ातिलों पर लानत किया करो।
अए फरज़न्दे शबीब! अगर वो सवाब हासिल करना चाहते हो , जो शोहदाए कर्बला को मिला है तो जब भी उन शहीदों की याद आए तो ये कहा करो “या लैतनी कुनतो मआकूम, फ़ अफू़जा़ मआकूम”
‘अए काश मैं उनके हमराह (शहीद) होता तो अज़ीम कामयाबी हासिल कर लेता।’
अए फरज़न्दे शबीब! अगर तुम चाहते हो के जन्नत के आला मुका़म पर हमारे जवार में रहो तो हमारे ग़म में ग़मज़दा हो जाया करो और हमारी खु़शी में खु़श हुआ करो।
हमारी विलायत से वाबस्ता रहो क्योंकि कोई शख्स अगर किसी पत्थर से भी मोहब्बत करे तो अल्लाह उसको रोज़े क्यामत उस पत्थर के साथ महशूर करेगा।
इन कीमती जुमलों में इमाम अली रज़ा(अ.स.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) की अज़ादारी और उनकी ज़ियारत का सवाब बयान किया है। कुछ लोग क़ौम की खै़रख्वाही में ये फिक़रे अदा करते हैं के कर्बला जाना काफी नहीं है या ये के दास्ताने कर्बला सुन कर रो लेना काफी नहीं है, बल्कि कर्बला को अपनी ज़िन्दगी में बरपा करना चाहिए। यानी कर्बला के मकसद को समझे बगैर सिर्फ आँसू बहा लेना बेकार है। ये रिवायत उनके क़ौल की तरदीद करती है। इमाम (अ.स.) ने पूरी रिवायत में कहीं इस तरह की शरत नहीं लगाई है। बक़ौले इमाम मोमिन जब गमज़दा हो तो इमाम हुसैन (अ.स.) की मुसीबत को याद करके गिरया करे, सुब्ह व शाम उनके का़तिलों पर लानत करे और उनकी ज़ियारत को जाए यही कर्बला को अपनी ज़िन्दगी में बरपा करना है।
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