आग़ाज़े इस्लाम सरज़मीने मक्का से हुआ। मक्का ख़ुदा के नज़दीक एक बहुत ही मोहतरम और मुबारक ज़मीन है। यह वही जगह है जहाँ अव्वले बैत (पेहला घर) खानए काबा है, मक़ामे इब्राहीम और दूसरी अल्लाह की निशानियाँ मौजूद हैं। इस शहर की अज़मत को क़ुरआन ने यूँ बयान किया है “ला उक़्सिमो बेहाज़ल बलद” (सूरए बलद, आयत 1)। क़सम है इस शहर की। इन तमाम अज़्मतों का हामिल यह शहर एक ज़माने में पूरी तरह से जिहालत और कुफ़्र में डूबा हुआ था।
जिस शहर को ख़लीले ख़ुदा (ख़ुदा के दोस्त) हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) जैसे मुवह्हिद (ख़ुदा को एक मानना) ने बसाया। वह एक कुफ़्रिस्तान बना हुआ था। जब सरवरे काएनात हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने इस शहर के लोगों को इस्लाम की तरफ़ दावत देना शुरू की, तो यह लोग उनके सख़्त मुख़ालिफ़ हो गए। कुफ़्फ़ारे मक्का की इस सख़्त मुख़ालेफ़त के बावजूद सरवरे आलम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने तबलीग़े दीन के काम को जारीओ सारी रख्खा। और मक्के के रहने वालोें को मुसलसल (लगातार) इस्लाम की दावत देते रहे। शुरू में आप का साथ देने वालों में ज़्यादातर लोग वह थे जो ग़रीब थे और समाज के पिछड़े तबके के लोग थे। मसअलन (उदाहरण) जनाबे यासिर और उनकी बीवी जनाबे सुमय्या (यह दोनो आगे चलकर इसलाम की राह में शहीद हो गए) जो आज़ाद किए हुए ग़ुलाम थे। फ़िर कुछ और बाअसर लोग जुड़े जिनमें ज़्यादातर लोग ख़ुद रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के ख़ानदान से थे, मसअलन जनाबे जाफ़रे तय्यार और रसूल के चचा जनाबे हम्ज़ा (तबका़तुल कुब्रा, जिल्द 1, सफ़्ह 163)
ऐलाने रिसालत के सात साल बाद जब इसलाम मक्के की सरहदों से बढ़कर दूसरे इलाकों में पहूँचने लगा और मक्के के बहुत से लोग इसलाम क़ुबूल करने लगे तो मुश्रेकीने मक्का ने रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) का मुकम्मल तौर पर सोशयल बाईकॉट का इरादा कर लिया। नतीजतन उनके ख़ानदान बनी हाशिम और औलादे अब्दिल मुत्तलिब को तीन साल तक शेबे अबू तालिब में क़ैद कर दिया गया। इन तमाम लोगों का इक्तिसादी (माली) और समाजी बायकॉट किया गया। ताकि उनकी हिम्मत टूट जाए और इसलाम का हमेशा के लिए ख़ातेमा हो जाए। (तबक़ातुल कुब्रा, जिल्द 1, सफ़्ह 163)
यह मक़ाम शेबे अबू तालिब मक्के के कोहे (पहाड़) अबू क़ुबैस और कोहे ख़न्दमा के दरमियान वाक़े एक दर्रा है।
मुश्रेकीने मक्का दारुन्नदवा में जमा हुए और क़ुरैश की आला मजलिस के अऱाकीन ने एक अह्दनामा तैयार किया। यह अह्दनामा काबे के अंदर दीवार पर लटका दिया गया और यह क़सम खाई गई कि क़ौमे क़ुरैश ज़िन्दगी के आख़री वक़्त तक दर्जज़ैल नुक़ात पर अमल करेगी। मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के हामीयों के साथ हर क़िस्म के लेनदेन पर पाबन्दी होगी। उनके साथ ताल्लुक़ और मुआशेरत सख़्ती के साथ ममनूँ (मना) होगी। हर क़िस्म का शादी ब्याह और हर क़िस्म का ताल्लुक़ मना होगा। तमाम वाक़ेआत में मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के मुख़ालेफ़ीन की ही हिमायत की जाएगी।
तारीख़े इब्ने कसीर में लिखा हुआ है कि मज़्कूरा अह्दनामा के मत्न और तमामतर नुक़ात पर क़ुरैश के तमाम बाअसर लोगों ने दस्तख़त किए और उसको पूरी सख़्ती के साथ नाफ़िज़ कर दिया गया।
उस तरफ़ जब हज़रत अबू तालिब (अलैहिस्सलाम) को इस बात की ख़बर हुई तो उन्होंने अपने घरवालों की हिफ़ाज़त के लिए उन सबको तीन पहाड़ियों के बीच जमा किया, जो बाद में शेबे अबू तालिब के उन्वान से मश्हूर हुआ। उन्होंने उसके चारों तरफ़ खानदाने बनी हाशिम के जवानों को तैनात किया, जो इस शेब की पहरेदारी और हिफ़ाज़त करते थे। इस तरह शेबे अबी तालिब की नाक़ाबन्दी और लॉकडाउन तीन साल तक जारी रहा। दिन ग़ुज़रते ग़ुज़रते क़ुरैश का बर्ताओ और शिद्दत इख़्तेयार करता रहा और सख़्तियाँ यहाँ तक बर्ती गईं कि फ़र्ज़न्दाने बनी हाशिम की आहोज़ारी (रोने की सदाऐं) मक्के के संगदिलों के कानों तक पहूँचने गलीं। लेकिन उनके दिलों पर उसका कोई असर नहीं हुआ। क़ुरैश के जासूस तमाम रास्तों की निगरानी करते थे कि कहीं खाने पीनें की चीज़ें शेबे अबू तालिब तक न पहूँचने पाए। लेकिन सख़्त निगरानी के बावजूद भी जनाबे खदीजतुल कुबरा का (अलैहास्सलामका) भतीजा हकीम बिन हिज़ाम और उसके साथी अबुल आस बिन रबीया और हिशाम बिन उमर, आधी रात को गेहूँ और खजूरें ऊंट पर लाद कर शेब के क़रीब पहूँचा देते और फ़िर ऊंट की ज़िमाम (मिहार) उसकी गर्दन पर डालकर छोड़ देते। बाज़ औक़ात यही पोशीदा मदद उनके लिए मसाएल का सबब भी बनता था। (सिरतुन्नबवीया, इब्ने हिशाम, जिल्द 1, सफ़्ह 354)
इन अय्याम में पैगंबरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और उनके चचा अबू तालिब (अलैहिस्सलाम) और उम्मुल मोमेनीन जनाबे ख़दीजा (अलैहास्सलाम) को दीगर लोगों की निस्बत मुश्किल तरीन हालात से गुज़रना पड़ा। बाज़ औक़ात यह हज़रात ख़ुद भूके रहते और अपने हिस्से का खाना दूसरों को दे दिया करते थे। यह वक़्त उन्होंने उम्मुल मोमेननीन ख़दीजा (अलैहास्सलाम) के माल से गुज़र बसर की। कभी कभी उनके अइज़्ज़ा व अक़ारिब (क़रीबी रिश्तेदार) अह्दनामे के बरअक्स और ख़ूनी और ख़ानदानी रिश्तों की बुनियाद पर ख़ुफ़िया तौर पर उन्हें खाने पीने की चीज़ें पहूँचा देते थे।
क़ुरैश में बहुत से ऐसे लोग भी थे जिनके बेटे बेटियाँ या पोते पोतियाँ या नवासे नवासियाँ या और कोई क़रीबी रिश्तेदार शेबे अबू तालिब में थे और वह मुसलसल इस कोशिश में रहते थे कि आपनो को शेबे से निकाल लें। बिल आख़िर एक रात जबकि बेसत का दसवाँ साल था अबू जहल, हकीम बिन हिज़ाम के रास्ते में रुकावट बना जबकि हकीम बिन हिज़ाम अपनी फुफी जनाबे ख़दीजा (अलैहास्सलाम) के लिए गेहूँ लेकर जा रहा था. इस पर दूसरे लोगों ने मुदाख़ेलत की और अबू जहल पर लानत मलामत की। धीरे धीरे क़ुरैश के कई लोग अपने किए पर शर्मिन्दा हुए और बनी हाशिम की हिमायत करने लगे। वह कहा करते थे: ऐसा क्या है कि बनू मख़ज़ूम नेमतों में खेले और हाशिम और अब्दुल मुत्तलिब के बेटे सख़्तियाँ झेलते रहें?
आख़िरेकार सबने मुतालेबा किया कि यह अह्दनामा मन्सूख़ होना चाहिए। अह्दनामे में शरीक बाज़ लोगों ने उस अह्दनामें को मुअत्तल करने का फ़ैसला किया। हिशाम ने इब्ने इस्हाक़ के हवाले से लिखा है कि क़ुरैश अह्दनामा देखने गए तो देखा कि दीमक पूरा अह्दनामा खा गई है, सिर्फ़ जुम्लए बिस्मिकाल्लाहुम्मा बाक़ी है।
इस सिलसिले में इब्ने हिशाम बाज़ अह्ले इल्म से नक़्ल करते हुए लिखते है: (जनाबे) अबू तालिब (अलैहिस्सलाम) ने क़ुरैश की अंजुमन में जाकर कहा: मेरे भतीजे का कहना है कि दीमक ने उस अह्दनामे को चाट लिया है, जो तुमने तहरीर किया था और सिर्फ़ अल्लाह के नाम को बाक़ी छोड़ा है। जाओ देखो अगर उनकी बात सच्ची है तो हमारा मुहासेरा उठाओ और अगर झुठी है तो मैं अपने भतीजे को तुम्हारे हवाले कर दूँगा। क़ुरैश अह्दनामा देखने गए तो क्या देखते हैं कि वाक़ेअन दीमक ने अल्लाह के नाम के सिवा पूरे अह्दनामे को खा लिया है। यूँ बनी हाशिम का मुहासेरा ख़्तम हुआ और वह शेबे अबू तालिब से बाहर आए। (एलामुल वरा, तब्रसी, सफ़्ह 73-74)
अह्ले सुन्नत इस बात का बहुत डंका पीटते हैं कि जब खलीफ़ए दूव्वुम ने इसलाम क़ुबूल कर लिया तो मुश्रेकीने मक्का ख़ौफ़ ज़दा हो गए। उमर के इसलाम क़ुबूल करने के बाद मुसलमानों की हिम्मत बढ़ गई और मुश्रेकीने मक्का उनके ख़ौफ़ से लरज़ने लगे। मुख़्तसर यह है कि उनका कहना है कि उमर के इसलाम क़ुबूल करने के बाद इसलाम और मुसलमानों को बहुत क़ुव्वत और ताक़त मिली। सवाल यह है कि अगर ऐसा है तो जब पैगंबरे इस्लाम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और बनी हाशिम शेबे अबू तालिब में क़ैद रहे और सरवरे आलम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और उनके घरवालों को सख़्त तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा तो उस वक़्त उमर ने नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की मदद क्यों नहीं की?
जब दावा यह किया जाता है कि उमर बहुत बहादुर और दिलेर थे तो वह इस बहादूरी और दिलेरी को उस वक़्त बरूए कार क्यों नहीं लाए?
अगर मुश्रेकीन के दरमियान उमर का बड़ा दबदबा और ख़ौफ़ था तो उन्होंने तीन साल में एक बार भी रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और उनके घरवालों की क़ुरैश के सामने वकालत करते हुए इस लॉकडाउन को ख़त्म करने की कोशिश क्यों नहीं की?
सवाल यह भी है कि तारीख़ और सीरतनिगार इस बात का ज़िक्र क्यों नही करते कि हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की मोहब्बत का दम भरने वाले बहुत से साबेक़ीन लोग सिर्फ़ ज़बानी आशिक़े रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) थे। तारीख़ गवाह है कि इस्लाम को अगर बचाया है तो जनाबे ख़दीजतुल कुब्रा (अलैहास्सलाम) के माल और क़ुर्बानी ने और नासिर ओ मोहसिने इस्लाम हज़रत अबू तालिब (अलैहिस्सलाम) की जाँनिसारी और ख़ून ने। आग़ाज़े इस्लाम में भी और जब कभी ख़ून की ज़रूरत हुई तब तब नस्ले अबू तालिब ही दीन के काम आई है।
हमारा करोड़ो सलाम हो, हज़रत अबू तालिब (अलैहिस्सलाम) और उनकी ज़ुर्रियते (नस्ल) पाक पर।
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