एहतेमामे ग़दीर -पार्ट-१
18 ज़िलहिज्जा उस अज़ीम दिन की याद है जिसे हम शिया लोग ईदे ग़दीर के नाम से मनाते हैं और इस दिन इंतिहाई मुसर्रत व शादमानी की फ़िज़ा क़ायम कर के खुशियों का इज़हार करते हैं यहां तक कि बाज़ (कुछ) लोग इस जश्ने पुर-मुसर्रत के मौक़े पर बहुत पहले से अपनी तय्यारियों का आग़ाज़ कर देते हैं ताकि उसे पहले से बेहतर तरीक़े से अंजाम दे सकें।और इस अम्र में ना जाने कितने मुहक़्क़िक़ीन और दानिशमंदों की मेहनतें और ज़हमतें सर्फ़ हो जाती हैं।
सवाल
इस बारे में कभी कभी यह ऐतराज़ किया जाता है कि आखि़र क्यों इस सिलसिले में इतनी जिस्मानी व ज़हनी क़ुव्वतें और मेहनतें सर्फ़ की जाती हैं। जबकि अगर यही मेहनत और ज़हमत क़ौम अपनी इक़्तेसादी और तालीमी शोबों और इसके नक़ाइस के बरतरफ़़ करने में सर्फ़ करें तो आज इल्मी पैमाने पर पिछड़ा हुआ मुसलमान दुनिया के तरक़्क़ी याफ़्ताह क़ौमों और मुल्कों की बराबरी कर सकता है। और एक ग़दीर के जश्न की ख़ातिर इतना एहतिमाम किया जाता है। आखि़र हर साल ग़दीर के वाक़ए की तक़रार करना और पैगंबरे इस्लाम के बाद अमीरुल मोमेनीन अली इबने अबी तालिब अ.स. की जा-नशीनी बिला-फ़स्ल के इस्बात के इसरार ने अब तक इन्सानी मुआशरे की रोज़-अफ़्ज़ूँ मुश्किलात में से किस मुश्किल को हल किया है? या मुसलमानों के इतने मसाइल में से किस मसले को हल कर दिया है? क्या बेहतर नहीं है आज हम अपनी बासलाहियत व बा इस्तेदाद अफ़कार व नज़रयात से ज़िंदगानी रोज़मर्रा के मुख्त़लिफ़ुन-नौअ दाइमी बन जानी वाले मुश्किलों का हल तलाश करें और गुज़रे हुए हालात व मसाइल को उन्हीं दिनों के लोगों के तफ़क्कुरात व हालात पर छोड़ दें और हाल और मुस्तक़बिल की तलाश में सब मिलकर क़दम आगे बढ़ायें।
यह कोई नया ऐतराज़ नहीं है मज़हबे शिया अस्ना अशरी के मुख़ालिफ़ों ने इस सवाल को हर दौर में मुख़्तलिफ़ तरीक़ो से लोगों के ज़हनों और दिलों में फैलाया है लेकिन यह सवाल आज हमें पहले से कुछ ज़्यादा इसके तमाम पहलूओं पर ग़ौर करने की दावत दे रहा है और इस के सद्दे राह की ख़ातिर यानी इसके मनफ़ी असरात के असर-अंदाज होने के बारे में गहराई से कोई मुसबत क़दम उठाने की ज़रूरत है।
हैरत व इस्तेजाब और साथ साथ दिलचस्प भी है कि शिया मज़हब के मुख़ालिफ़ीन, शियी मकतबे फ़िक्र के मुताबिक अंजाम दिए जाने वाले तमाम महफ़िलों और जश्न वग़ैरा की मुख़ालिफ़त में यही ऐतराज़ पेश करते हैं। मगर उन लोगों ने इस हर्बे को दुश्मनाने इस्लाम से सीखा है इस लिए कि जब इस्लाम व क़ुरआन के दुश्मन, इस्लाम पर ऐतराज़ करते हैं तो इसी तरह के सवालात पेश करते हैं मसलन कहते हैं आखि़र इतनी क़ुव्वत व ताक़त और सरमाया मज़हबी मरासिम जैसे नमाज़़, रोज़ा, क़ुरआन वगैरा की क़िरत (पढ़ने) में ख़र्च करते हैं उसे मुल्क की माद्दी तरक़्क़ी और क़ौम की पेश-रफ़्त में क्यों नहीं सर्फ़ (ख़र्च) करते ताकि आलमी पैमाने पर इन क़ौमों के साथ शुमार किए जायें जो इस वक़्त तरक़्क़ी याफ़्ताह क़ौमों में शुमार होती हैं। सच बताईए हर साल ख़ानए ख़ुदा की ज़ियारत और क़ुरआन व इस्लाम की हक़्क़ानियत के साबित करने पर इसरार ने अब तक रोज़-अफ्जूँ मुश्किलात व परेशानीयों में से किस मुश्किल को हल कर दिया है?
इस ऐतराज़ का जायज़ा लेने के लिए दो बातों की तरफ़़ इशारा करूँगा।
जहां तक पहली बात है तो मालूम होना चाहिए कि इल्म व दानिश की वादी एक ऐसी वादी है जहाँ एक ख़ास फ़िज़ा और माहौल की हुक्मरानी होती है आज भी मग़रिबी ममालिक की अहिम और मोतबर यूनीवर्सिटीयों में जो टैक्नोलॉजी के ऐतेबार से भी निहायत तरक़्क़ी याफ़्ताह हैं। अरस्तू और अफ़लातून के फ़लसफ़े की तदरीस होती है और यूनीवर्सिटी के दानिशमंद अफ़राद बहिस व तदरीस में मशग़ूल हैं। हम देखते हैं कि इन बुजुर्गों के नज़रयात से इस्तेफ़ादा करते हुए तरक़्क़ी कर रहे हैं और उनके उसूल व क़वानीन तलबा के दर्सी निज़ाम का हिस्सा हैं जिनसे वह मुस्तफ़ीद हो रहे हैं और इसी से एक खास पहचान है।
हर माँ बाप अपने बच्चे को सच बोलने की दावत देते हैं और झूठ और झूठ बोलने को बुरा समझते हैं और अपने बेटों को इस से दूर रहने की ताकीद करते हैं, तो क्या इस तरह की तर्बीयत इन्सानी ज़िंदगी में कार-आमद नहीं है और क्या यह कार-आमद होना माद्दी है?
दुनिया के तमाम इन्सानी मुआशरे में लोग ना-पसंद चीज़ को अज़ीयत और तकलीफ़-दह शुमार करते हैं हर इन्सान एक दूसरे को मज़लूम की मदद करने की सिफ़ारिश करता है दुनिया का कौन इंसान इस अख़्लाक़ी तालीम और इंसानी मुआशरे की तरक़्क़ी के इस्लाह में इसमें शक करेगा। इसी तरह कौन है जो यह कहे कि झूठ ना बोलना और सच बोलना आफ़ताब व माहताब को तसख़ीर करने में राबिता पाया जाता है। कोई इस बात का क़ाइल ना होगा।
इसी बात को दूसरे अंदाज़ से पेश करता हूँ ताकि अंदाज़ा हो जाये कि कोई भी चीज़ सिर्फ़ माद्दियत में महदूद नहीं होती है।
हर मुसलमान ख़ानदान में कम-अज़-कम एक जिल्द क़ुरआने करीम ब-उनवान आसमानी और इलाही किताब के मौजूद होती है और लोग अपने वक़्त की मुनासिबत से उसे पढ़ते रहते हैं जबकि तमाम मुसलमान इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि ना सिर्फ़ क़िरअत बल्कि उसके मआनी में ग़ौर व फ़िक्र और ताम्मुल करने से भी ज़ाहिरी लिहाज़़ से उनकी माद्दी मुश्किलात में से किसी एक मुश्किल का भी जिबरान नहीं हुआ है, लेकिन यह एक हक़ीक़त और वाक़इयत है कि हम क़िरअत क़ुरआन से उम्मीद रखते हैं बल्कि ईमान रखते हैं कि हमारी हिदायत करेगा, परवरदिगार से नज़दीक करेगा, और हम उसे इंतिहाई और ग़ैरमामूली अहमियत का दर्जा देते हैं जिसका माद्दियत से कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता।
इसी तरह एक और हक़ीक़त है जिसका ताल्लुक़़ गुज़िश्ता ज़माने से भी रहा है और आइन्दा ज़माने में भी इसकी ग़ैरमामूली अहमियत साबित है जिसको मआद कहते हैं क़यामत और रोज़े हश्र और इसकी तमाम ख़सुसीआत यह वह हक़ाइक़ हैं जिनका क़ुरआन में ज़िक्र हुआ है, यह इस क़द्र अहमियत का हामिल है कि हम सबक़ो पहली ही फुर्सत में अपनी तरफ़़ मुतवज्जे कर लेता है हम सब इस बात की कोशिश करते हैं कि कुछ इस तरह आमाल अंजाम दें कि आतिशे जहन्नुम से महफूज़ हो जाऐं, मआद से मुताल्लिक आयतों की तिलावत नीज पैगंबर अकरम स.अ. की मआद की कैफीयत के बारे में रिवायतें क्या हम सबक़ो इस बात की तरफ़ मुतवज्जा नहीं करतीं कि मआद एक तरफ़ तो जमाना गुजशता से पैवस्ता भी है और दूसरी तरफ़ उसका हमारी इल्मी वफन्नी तरक़्क़ी में किसी तरह का कोई नक़्श भी नहीं है? क़यामत और मआद के लिए हम मुसलमानों की ज़िंदगी में और रफ़्तार व गुफ़्तार में जो नक़्श और अहमियत साबित है उसका इनकार मुम्किन नहीं है बल्कि यह वह वाक़ईयत है जिसका इनकार करने से दायेरए इस्लाम से खारिज हो जाएगा, मगर इसके बावजूद मआद का बा-अहमियत होना और एक मुसलमान की सर-नविश्त में मआद का अहिम तरीन नक़्श होना अलग बात है जिसका माद्दियत से कोई रब्त नहीं है, मआद अहमियत का हामिल है मगर माद्दी नहीं है लिहाज़़ा अब तक की तमाम मिसालों से यह बात वाज़ेह व आश्कार हो जाती है कि यह बात अज़ लिहाज़़े उसूल ग़लत है कि किसी अम्र का कार-आमद होना या उस अम्र का बा-अहमियत होना उसके माद्दी पहलूओं में मुज़मर होता है कि वह माद्दी ऐतेबार से जितना कार-आमद होगा उतना ही अहमियत वाला हुआ। हर चीज़ को माद्दी नुक़्तए निगाह से नहीं देखना चाहिए।
इसी तरह किसी रूदाद का तारीख़़ी होना उसकी कम अहमियत की दलील नहीं हो सकती है।
अगर हम में से हर एक को इस्लाम के बारे में सवालात का सामना करना पड़े तो यकीनन उस के जवाब में हम आँहज़रत स.अ. की दावत व तबलीग़ और इस्लाम के इबतिदाई दौर में रूनुमा होने वाले वाक़ियात का सहारा लेंगे और आईने इलाही के माना व व मफ़ाहीम की वज़ाहत और तशरीह करने पर आमादा हो जाऐंगे, इस सूरत में यह बात बिल्कुल वाज़ह व रौशन है कि जवाब में इस्लाम के वुजूद और उसके आग़ाज़ के बारे में गुफ़्तगु करना यक़ीनन गुज़रे हुए ज़माने में क़दम रखना कहा जायेगा गोया आज जिस दीने इस्लाम ने वुजूद इख़्तेयार किया है इसकी जड़ें गुज़िश्ता ज़माने से पैवस्ता हैं, सवाल यह है क्या तारीख़ की तरफ़़ पलटना और इस तरह की मन्तिक़ी और अक़ली गुफ़्तगू करना, बेकार,बेहूदा और फुजूल है?
हम दुनिया के बहुत से तारीख़़ी वाक़ेयात में भी कुछ उमूर का मुशाहिदा करते हैं कि हर-चंद वह माद्दी पहलू से कार-आमद नहीं हैं मगर वह दुनिया की क़ौमों के नज़दीक ख़ास अहमियत की निगाह से देखे जाते हैं हम सब हिन्दुस्तानी हैं और अपने मुल्क की सरहद के बारे में निहायत हस्सास हैं, इन्साफ़ से बताईये हम में से कौन ऐसा होगा जो इस बात को क़बूल करे कि हमारे मुल्क का कोई पड़ोसी मुल्क या कोई और मुल्क हमारी सर-ज़मीन का एक बालिशत भी अपनी सरहद में शामिल कर ले और सरहद की हदबंदी को अपने मफ़ाद में इस्तेमाल करे हरगिज़ नहीं ऐसा कोई क़बूल करने को तैयार नहीं होगा।
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