जब अह्लेबैत (अ़.स.) को अ़ज़ीयत देने वालों पर लअ़्नत भेजने की बात आती है तो कुछ अफ़राद इस पर एअ़्तेराज़ करते हैं। वोह कहते हैं कि लअ़्नत को कम से कम किया जाए या उसको ख़त्म ही कर दिया जाए, बल्कि लअ़्नत भेजने में मलाई़न का नाम न लिया जाए। इसी तरह़ उन पर ख़ुल्लम ख़ुल्ला लअ़्नत नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ का तो कहना है कि ह़क़ीक़त में लअ़्नत करना ही नहीं चाहिए ताकि मुसलमानों के दरमियान इत्तेह़ाद बरक़रार रखा जा सके।
इस बारे में एक बात येह भी कही जाती है कि आले मोह़म्मद (अ़.स.) ने कभी भी लअ़्नत की तरग़ीब नहीं दी है।
अगरचे इस क़िस्म के बेबुनियाद एअ़्तेराज़ात के जवाबात मौजूद हैं, लेकिन हम एक ऐसा वाक़ेआ़ पेश करते हैं, जो तबर्रा के ख़िलाफ़ एअ़्तेराज़ात को तमाम पह्लूओं से यक्सर ख़ाक कर देता है।
बशरुल मुकारी कहते हैं: मुझे कूफ़ा में इमाम सादिक़ (अ़.स.) की मौजूदगी में शरफ़ ह़ासिल हुआ। इमाम (अ़.स.) ख़जूरें खा रहे थे। मैं दाख़िल हुआ तो आप (अ़.स.) ने फ़रमाया: बशर, मेरे साथ बैठो और खजूरें खाओ।
मैंने कहा: मैं आप पर क़ुर्बान हो जाऊँ! रास्ते में, मैंने एक ऐसा नज़ारा देखा जिससे मुझको शदीद तकलीफ़ हुई और बेचैनी की वजह से खाने से क़ासिर हूँ।
इमाम (अ़.स.) ने कहा: आप ने रास्ते में क्या देखा?
मैंने अ़र्ज किया: रास्ते में मैंने देखा कि एक सरकारी अह्लकार एक औ़रत को सर पर मार रहा है और उसे जेल की तरफ़ घसीट रहा है। वोह हर एक से अल्लाह और रसूल (स.अ़.व.आ.) के वास्ते से मदद के लिए पुकार रही थी, लेकिन किसी ने भी उसकी मदद के लिए पेश क़दमी न की।
इमाम (अ़.स.) ने कहा: उसका जुर्म क्या था?
मैंने कहा: लोग बयान कर रहे थे कि वोह औ़रत ने रास्ते में ठोकर खाई और उस ह़ालत में पुकार उठी कि अल्लाह की लअ़्नत हो उन पर जिन्होंने आप पर ज़ुल्म किया, ऐ फ़ातेमा (स.अ़.)।
इमाम (अ़.स.) येह सुनकर इतनी शिद्दत से रोने लगे कि उनका रूमाल और रीशे मुबारक और आप का मुक़द्दस सीना आँसूओं से तर हो गया।
इमाम (अ़.स.) ने फ़रमाया: बशर आओ! हम मस्जिदे सहला की ज़ियारत करें और उस औ़रत की नजात के लिए दुआ़ करें। इस दौरान किसी को भेज दो कि वोह अ़दालत से उस औ़रत की ह़ालत की ख़बर ले आए।
बशर ने कहा: हम मस्जिदे सहला में दाख़िल हुए और दो रकअ़्त नमाज़ अदा की। इमाम (अ़.स.) ने उस औ़रत की नजात की दुआ़ की और सज्दे में चले गए। आप ने सज्दे से सर उठाया और फ़रमाया: चलो चलें कि उन्होंने उसे आज़ाद कर दिया।
उसके बअ़्द हम मस्जिद के बाहर आए। इतने में वोह शख़्स जिसको हम ने उस औ़रत की ख़बर लाने को रवाना किया था, आया और इमाम को इत्तेला दी कि उन लोगों ने उस औ़रत को आज़ाद कर दिया।
इमाम (अ़.स.) ने पूछा: उस औ़रत को कैसे रिहा कर दिया?
उस आदमी ने कहा पता नहीं लेकिन जब मैं अ़दालत गया तो वोह औ़रत जेल से रेहा हो चुकी थी। और उसको ह़ाकिम के सामने लाया गया था। उसने औ़रत से पूछा: तुम ने ऐसा क्या किया कि तुम को गिरफ़्तार किया गया।
ख़ातून ने वाक़ेआ़ बयान किया। ह़ाकिम ने उस औ़रत को २०० दिरहम (बतौरे मुआ़वज़ा) पेश किया। लेकिन उसने क़बूल न किया। ह़ाकिम ने इस्रार किया: हमें ग़ुलाम समझकर दिरहम ले लो। लेकिन ख़ातून ने रक़म क़बूल नहीं की। मगर वोह बहरह़ाल आज़ाद हो गई।
इमाम (अ़.स.) ने पूछा: उसने २०० दिरहम नहीं लिए?
मैंने कहा: नहीं, ख़ुदा की क़सम!
इमाम (अ़.स.) ने फ़रमाया: बशर, येह सात दीनार उसे दे दो। क्योंकि उसे इस रक़म की सख़्त ज़रूरत है। और मेरा सलाम भी उस तक पहुँचा दो।
जब मैंने उस औ़रत को सात दीनार दिए और इमाम सादिक़ (अ़.स.) का सलाम भी पहुँचा दिया तो उसने ख़ुशी से पूछा: क्या इमाम (अ़.स.) ने मेरे लिए सलाम भेजा है?
मैंने कहा: हाँ। वोह औ़रत ख़ुशी की वजह से बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तो उसने दोहराया: क्या इमाम (अ़.स.) ने मेरे लिए सलाम भेजा है?
मैंने कहा: हाँ! और उसने मुझ से तीन बार पूछा उसने दरख़ास्त की कि मैं इमाम को अपना सलाम पहुँचाऊँ और आप (अ़.स.) से दरख़ास्त करूँ कि आप की दुआ़ओं की मोह़ताज हूँ और मुझे अपनी कनीज़ समझें।
वोह बअ़्द में वापस आया और इमाम सादिक़ (अ़.स.) तक येह बात पहुँचा दी। इमाम (अ़.स.) येह सुनकर रोने लगे और उसके लिए दुआ़ की।
(मुस्तदरकुल वसाएल, जि.३, स.४१९, मस्जिदे सहला में मुस्तह़ब नमाज़ों के बाब के तह़त और मस्जिद में पनाह माँगना और ग़म के वक़्त उसमें दुआ़ माँगना; बेह़ारुल अनवार, जि.४७, स.३७९-३८०)
ग़ौर तलब अहम नुकात
१) तबर्रा की सिर्फ़ इजाज़त नहीं है बल्कि इन्तेहाई सिफ़ारिश की जाती है वरना इमाम सादिक़ (अ़.स.) और उनके अस्ह़ाब, उस औ़रत की रिहाई के लिए इस ह़द तक नहीं जाते।
२) ठोकर खाने या किसी मुश्किल के वक़्त आले मोह़म्मद (अ़.स.) को अ़ज़ीयत देने वालों पर लअ़्नत करने से मुस्तक़बिल में मुश्किल से नजात का इमकान है।
३) ख़ाह तबर्रा खुले आ़म किया जाए और दुश्मनों तक पहुँच जाए जैसा कि इस वाक़ेआ़ में हुआ है। आले मोह़म्मद (अ़.स.) की नेक ख़ाहिशात और फ़िक्रमन्दी की दअ़्वत देते हैं।
नतीजा
आले मोह़म्मद (अ़.स.) ख़ुद उस शख़्स के लिए दुआ़ करते हैं और हर मुमकिन मदद भेजते हैं जिसने तबर्रा किया है, ख़ास तौर पर अगर तबर्रा उसे मुसीबत में डाले। येह बहुत से दूसरे वाक़ेआ़त से ज़ाहिर होता है जैसे कि अबू राजेह़ ह़मामी का वाक़ेआ़ जो ग़ासिबों को खुल्लम खुल्ला गालियाँ देता था, पीट पीट कर मरने के लिए छोड़ दिया था यहाँ तक कि उसे इमाम महदी (अ़.स.) की दुआ़ से नजात मिली।
(तफ़सील के लिए बेह़ारुल अनवार, जि.४६, स.७० को देखा जा सकता है।)
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