इन्ना अव्व-ल बैतिन वोज़ेअ़़ लिन्नासे लल्लज़ी बेबक्क-त मुबा-रकन व हुदन लिल आ़़-लमी-न
बिला शुब्हा वोह पहला मकान जो लोगों के लिए बनाया गया वह बक्का (मक्का) में है जो बाबरकत है और सारे आ़लम के लिए हिदायत है।
(सूरह आले इ़मरान ९६)
वोह पहला मकान जो लोगों के लिए बनाया गया, उनकी हिदायत का ज़रीआ़ है। मुसलमानों का क़िब्ला ख़ानए कअ़्बा है। इस बाबरकत मकान की निशानदही क़ुरआन ने इस तरह की है कि यह मकान सरज़मीने बक्का पर है (शह्रे मक्का का क़दीमी नाम बक्का है)। इस घर की अ़ज़मत के लिए यही काफ़ी है कि ख़ुदा ने इस को अपने नाम से मन्सूब कर लिया और इसीलिए इस मकान को बैतुल्लाह यानी अल्लाह का घर कहा जाता है।
क़ुरआन में इस मकान के बारे में मुतअ़द्दिद आयात मौजूद हैं। इन में से एक यह है :
ज-अ़-लल्लाहो अल-कअ़्बतल-बैतल ह़राम
अल्लाह तआ़ला ने ख़ानए कअ़्बा को मोहतरम घर क़रार दिया है।
(सूरह माएदा ९७)
ऐसा नहीं है कि कअ़्बा मुसलमानों का क़िब्ला बनने के बअ़द बाअ़ज़मत हुआ है। क़ुरआन ने इस की अ़ज़मत कि दास्तान दौरे इब्राहीम (अ़़.स.) से बयान की है। इस मकान की तहारत और बुर्ज़ुगी के लिए यही बात काफ़ी है कि इसको ख़ुदा के ख़लील ने बहुक्मे ख़ुदा ख़ुद अपने हाथों से तामीर किया है। इस घर का शरफ़ उस वक़्त और बढ़ गया जब इस में बेअ़्सते रसूल से तीस साल क़ब्ल बाबे मदीनतुल इ़ल्म हज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़़.स.) की विलादते बा सआ़दत हुई। यह वाके़आ़ तारीख़ का वोह अ़ज़ीम वाक़ेआ़ है जिसको तमाम शीआ़ सुन्नी मोअर्रेख़ीन और मुह़द्देसीन ने नक़्ल किया है मगर चंद दुश्मनाने अह्लेबैत (नासेबी) अफ़राद इस वाक़ए़ के मुनकिर नज़र आते हैं। बअ़्ज़ ने इस की अ़ज़मत को कम करने के लिए यह दअ़्वा किया कि यह शरफ़ सिर्फ़ अ़ली इब्ने अबी तालिब को नहीं मिला, कोई और शख़्स हकीम इब्ने हेज़ाम भी कअ़्बे में पैदा हुआ है।
इन जअ़्ली रवायात और मनगढ़त दास्तानों का जवाब सिर्फ़ शीआ़ ओ़लमा ही नहीं बल्कि अह्ले तसन्नुन (सुन्नी) ओ़लमा ने भी दिया है। बअ़्ज़ शीआ़ ओ़लमा ने इस मौज़ूअ़् पर मुस्तक़िल किताबें लिखी हैं। इस मुख़्तसर मक़ाले में हम इस मौज़ूअ्र पर सिर्फ़ एक ताएराना नज़र डालेंगे।
अह्ले तसन्नुन के मुतअ़द्दिद ओ़लमा ने इस बात का इक़रार और तस्दीक़ भी की है कि हज़रत अ़ली (अ़़.स.) की विलादत ख़ानए कअ़्बा में हुई है। इन में से कुछ का ज़िक्र हम यहाँ बतौर इस्तेदलाल कर रहे हैं।
किताब मुस्तदरक अ़लस्सह़ीह़ैन के मुअल्लिफ़ और अह्ले तसन्नुन के एक नेहायत ही बुर्ज़ुग और मोअ़्तबर आ़लिम इमाम ह़ाकिम ने हकीम इब्ने हेज़ाम के ह़ालात का तज़केरा करते हुए लिखा है:
व क़द तवातोरतिल अख़बार अन फ़ातेमा बिन्ते असद वालेदतो अमीरुल मोमेनीन अ़ली इब्ने अबी तालिब कर्रमल्लाहो वज्हहू फ़ी जौफ़िलकअ़्बा
यअ़्नी तवातुर से साबित है कि फ़ातेमा बिन्ते असद ने हज़रत अ़ली (अ़़.स.) को कअ़्बे के अन्दर जनम दिया।
( मुस्तदरक ह़ाकिम ४८)
अह्ले तसन्नुन के एक और जय्यद आ़लिम अ़ल्लामा इब्ने सब्बाग़ मालिकी
(इज़ालतुल ख़ोलफ़ा जिल्द २ सफ़ह़ा २५१) ने इस तरह नक़्ल किया है।
अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़़.स.) शबे जुमअ़् १३ रजब ३० आ़मुल फ़ील, ३२ साल क़ब्ल अज़ हिजरते मक्का मोअ़ज़्ज़मा में ख़ानए कअ़्बा के अन्दर पैदा हुए। हज़रत अ़ली (अ़़.स.) की जलालत व बुज़ुर्गी और करामत की वजह से ख़ुदावन्द आ़लम ने इस फ़ज़ीलत को उन के लिए मख़्सूस किया है।
अ़ल्लामा इब्ने जौज़ी हनफ़ी (तज़केरतुल ख़वास, सफ़हा २०)
कहते हैं कि ह़दीस में वारिद हुआ है : जनाबे फ़ातेमा बिन्ते असद ख़ानए कअ़्बा का तवाफ़ कर रहीं थीं कि वज़्ए़ ह़म्ल के आसार ज़ाहिर हुए उसी वक़्त ख़ानए कअ़्बा का दरवाज़ा खुला और जनाबे फ़ातेमा बिन्ते असद दाख़िल हो गईं उसी जगह ख़ानए कअ़्बा के अन्दर हज़रत अ़ली (अ़़.स.) पैदा हुए ।
(वाज़ेह रहे कि मोअ़्तबर कुतुब के मुताबिक़ जनाबे फ़ातेमा बिन्ते असद के लिए दीवार में शिगाफ़्ता होकर नया दर बना था)।
सफ़ीयुद्दीन ह़ज़रमी शाफ़ई़़ (वसीलतुल माल, हज़रमी शाफ़ई, सफ़ह़ा २८२) पर लिखते हैं।
हज़रत अ़ली (अ़़.स.) की विलादत ख़ानए कअ़्बा के अन्दर हुई । आप (अ़़.स.) वोह पहले और आख़री शख़्स हैं जो ऐसी पाक व मुक़द्दस जगह पैदा हुए।
इन मोअ़्तबर हवालों के अ़लावा शीओ़ं की एक मअ़्रूफ़ और तहक़ीक़ी किताब शर्ह़े एह़क़ाक़ुल हक़ में इस वाक़ए़ को अह्ले तसन्नुन के १७ मआख़ज़ से नक़्ल किया है।
( मरअ़शी नजफ़ी, शर्ह़े एह़क़ाक़ुल ह़क़ जिल्द ७ सफ़ह़ा ४८६-४९१)
इन तमाम रवायात से इस बात का तो यक़ीनी तौर पर इल्म हो जाता है कि हज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़़.स.) की विलादत बैतुल्लाह में हुई थी और यह बात भी तै है कि इन के अ़लावा यह शरफ़ किसी को नहीं मिला न किसी नबी को न किसी सहाबी को। फिर यह मनगढ़त बात किस ने और क्यों गढ़ी है कि कअ़्बे में किसी और की विलादत भी हुई है? इस का जवाब यह है कि मौलाए काएनात को ख़ुदावंद आ़लम ने बहुत से फ़ज़ाएल व मनाक़िब से नवाज़ा है। इन में से बहुत से फ़ज़ाएल ऐसे हैं जिन्हें कोई दूसरा शख़्स छू भी नहीं सकता (ज़ाले-क फ़ज़्लुल्लाहे यूतीहे मंय्यशा) यह तो अल्लाह का फ़ज़्ल है जिसे चाहे अ़ता करता है।
बजाए यह कि मौलाए काएनात के फ़ज़ाएल को दिल-ओ-जान से क़ुबूल किया जाए, दुश्मनाने अमीरुल मोमेनीन ने ह़सद की बेना पर उन के फ़ज़ाएल का या तो इन्कार कर दिया या उन की अहम्मीयत को कम करने की कोशिश की है। इतना ही नहीं अमीरुल मोमेनीन (अ़़.स.) के फ़ज़ाएल छुपाने के लिए उन को बयान करने पर पाबन्दी लगा दी गई। इस अ़मल को एक जुर्म क़रार दिया गया। मनाक़िबे मौलाए काएनात बयान करने वालों को ख़ामोश करने की कोशिश की गई। हत्ता कि उनको क़त्ल कर दिया गया है। तारीख़ में ऐसे बहुत से अफ़राद का ज़िक्र मिलता है जिनको सिर्फ़ इस बात पर क़त्ल किया गया कि वोह अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़़.स.) के फ़ज़ाएल बयान किया करते थे।
मगर ह़क़-ओ- बातिल की यही पहचान है कि आज हक़ को दबाने, छुपाने, और मिटाने वाले मिट गए मगर ह़क़ और आवाज़े ह़क़ बलन्द करने वाले आज भी उसी शान से परचमे ह़क़ बलन्द किए हुए हैं।
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