रसुलुल्लाह (स.अ.) पर उम्मत का सितम

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सन 10 हिजरी के इख्तिताम से ही सरवरे कायनात हज़रत मोहम्मद मुस्तुफा़ (स.अ.) अपनी उम्मत को यह बताते रहे कि अनक़रीब मैं तुम्हारे दरमियान से चला जाने वाला हूँ। मैं अपने रब की दावत को क़ुबूल करते हुए अपनी जान को उसके सुपुर्द कर दूँगा। आप (स.अ.) अपनी उम्मत को मुसलसल वाज़ और नसीहत करते रहे। उनको अपने बाद आने वाली गुमराही से होशियार रहने की तलक़ीन करते रहे। एहले तसन्नुन की मोतबर तरीन किताब सिहाए सित्ता में इस बात का ज़िक्र है कि आँ हज़रत बहुत से मौक़ों पर हदीसे ‘सक़लैन’ की तकरार की है। आप ने कई मर्तबा उम्मत से खिताब करते हुए फ़रमाया कि “उम्मत की रहनुमाई और नजात के लिए मैं दो क़ीमती चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ, एक क़ुरआन (किताबे खुदा) और दूसरे मेरे एहलेबैत, अगर तुम इन दोनों को मज़बूती से थामे रहे तो कभी गुराह न होगे।”

यहाँ तक कि जब आप का वक़्ते आख़िर क़रीब आ गया तो आपका जिस्मे मुबारक दिन ब दिन बीमारी की वजह से कमज़ोर होने लगा। लोगों पर यह ज़ाहिर हो गया के अब हुज़ूर की रूख़सत का वक़्त करीब आ रहा है। ज़िन्दगी के आख़री दिनों में आप को वह दिन देखने पड़े जो आप ने कभी नहीं देखे थे। उन दिनों में आप के क़रीबी साथी जो रसूल की सहाबियत और रिफाक़त का दम भरते थे आपके हुक़्म की ख़िलाफ़ वरज़ी करने लगे आप के लिए यह अय्याम उन दिनों से ज़्यादा मुसीबत आमेज़ थे जो आप ने कुफ्फा़रे मक्का के तशद्दुद में गुज़ारे थे। उन्हीं दिनो को याद करके सहाबिए रसूल हिब्रे उम्मत और मुफ़स्सिरे क़ुरआन अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास अक्सर रोया करते थे। कुतुबे सुनन, सीरत की किताबें और तारीखी हवाले यह सब इसकी गवाही देते हैं कि आँ हज़रत की ज़िन्दगी के आखरी दिनों में अक्सर असहाब उनके ह़ुक्म के मुखा़लिफ़ हो गए थे। उन वाकेआत में एक अहम वाकेआ ‘रज़ीएतो यव्मे ख़मीस’ – वाकए क़लम और काग़ज के नाम से मशहूर है।

सही बुखा़री में यह वाक़ेआ दो से ज़्यादा जगोंह पर नक़्ल हुआ है (यह तक़रार इस वाक़ए की एहमियत के लिए काफ़ी है) एक मुक़ाम पर यह वाकेआ इस तरह नक़्ल हुआ है कि जब रसूलुल्लाह (स.अ.) की बीमारी ने शिद्दत इख्तियार  करली तो आपने अपने क़रीब जमा असहाब से कहा कि मेरे लिए क़लम और कागज़ ले आओ ताकि मैं तुम्हारे लिए एक ऐसा नव्श्ता लिख दूँ जिस से तुम मेरे बाद कभी गुमराह न हो। उस पर उमर इब्ने खत्ताब ने कहा नहीं यह शख्स (रसूल) बेजा बात कर रहा है, हमारे लिए किताबे ख़ुदा काफ़ी है। वहाँ मौजूद एक दूसरे शख़्स ने कहा – आँ हज़रत को कागज़ और क़लम दे देना चाहिए। इस पर दोनों गिरोह आप की मौजूदगी में शोरो गु़ल करने लगे और एक दूसरे से बहस करने लगे। आप ने सब को अपने पास से जाने को कहा। इस वाकए में तकलीफ़ देह बात यह है कि जो अफ़राद क़लम और कागज़ देने के मुखा़लिफ़ थे वह सिर्फ़ रसूल के मुखा़लिफ़त नहीं कर रहे थे, बल्कि वह उम्मत की गुमराही का सामान भी कर रहे थे। बहुत मुमकिन था कि रसूल के इस नविश्ता लिखने के बाद उम्मत में इस तरह इख़तिलाफ़ न होता जैसा आज है। ख़ुद रसूल का यह जुमला बल्कि यह ज़मानत देना कि (ताकि तुम गुमराह न हो जाओ) उस नविश्ते की एहमियत को वाजेह (साफ़) करता है। इस तरह  जिन लोगों ने आँ हज़रत को इस अहम फेल को अंजाम देने से रोका, वह उम्मत की गुमराही के ज़िम्मेदार हैं। उनका जुर्म इस बात से और खतरनाक हो जाता है कि वह दानिस्ता या नादानिस्ता तौर पर उमर की ताईद कर रहे थे, जिनका मानना यह था कि रसूलुल्लाह बेतुकी बात कर रहे हैं (मआज़ल्लाह)।

मुसलमानो की तारीख का एक और शर्मनाक वाक़ेआ भी उन्हीं दिनों का है, 18 सफर सन 11 हिजरी को रसूलुल्लाह ने इस्लामी परचम उसामा बिन ज़ैद के हाथों में दिया और उन को शाम की तरफ़ कूच करने का हुक़्म दिया। आँ हज़रत ने अपने तमाम असहाब को हुक़्म दिया कि उसामा के लश्कर में शामिल हो जाएं। आप ने उस लश्कर को फो़रन मदीने से रवाना होने का हुक्म दिया। बनी हाशिम के अफ़राद के अलावा तमाम मुहाजेरीन और अन्सार के लिए यह हुक़्म था कि लश्कर के साथ शाम की तरफ कूच करें।

आप ने बार बार अपने इस हुक़्म को दोहराया मगर आप के असहाब ने आप के इस हुक़्म को न माना। उन लोगों की इस मुखा़लिफ़त ने आप को सख्त़ रंजीदा किया। उधर आप की सेहत दिन ब दिन बदतर होती जा रही थी। फ़िर भी आप को जब भी ग़श से अफाक़ा होता आप उसामा के लश्कर की रवानगी के बारे में सवाल करते। यहाँ तक की अपने जिस्म की कमज़ोरी के बावजूद आप दूसरों का सहारा लेकर मस्जिद तशरीफ़ ले गए और सब के लिए उसामा के लश्कर में शामिल होने के अपने हुक़्म को दोहराया। उसके बाद भी तारीख़ बताती है कि मुहाजेरीन के अकाबिर अबूबक्र, उमर, साद इब्ने अबी वक्कास, वगैरह। इस हुक़्म को फ़रामोश करते रहे। इस तरह रसूलुल्लाह की ज़िन्दगी ही में बड़े पैमाने पर आप की मुहब्बत का दम भरने वाले असहाब ने आप की खुलेआम मुखा़लिफ़त की। आख़िरकार रहमतुल्लिल आलमीन नबी को उन अफ़राद पर लानत करना पड़ी। इस तरह अपने आख़री वक़्त में आँ हज़रत को अपने चन्द असहाब की वजह से जिसमानी और ज़हनी तकलीफ़ बर्दाश्त करना पड़ी।

इन दोनों वाक़ेआत का इन्कार नहीं किया जा सकता। तमाम अहम सीरत की किताबों में यह वाक़ेआत दर्ज हैं। अलमिया यह है कि यह वाक़िआत उस दौर के है जिन्हें मुसलमान फख्ऱ से दौरे सलफ कहते हैं। और यह दावा करते हैं कि इस्लाम में सब से अफज़ल दौर और सबसे बेहतर लोग उसी दौर में थे। एहले तसन्नुन के उलमा ने इन दोनो वाक़ेआत में असहाब की दिफा में मुख़तलिफ़ तोजीहात पेश की हैं और उनके दामन पर लगे उन धब्बो को मिटाने के लिए मनघड़त बातें बनाई हैं। मगर जो कुछ इन वाक़ेआत में यह बात भी रौशन है कि रसूल को असहाब की मुखा़लिफ़त से बहुत अज़ीयत पहूँची और आप इससे शदीद (सख्त) रंजीदा थे। क़ुरआन का फैसला है कि जो भी रसूलुल्लाह को अज़ीयत देता है उस पर दुनिया और आखे़रत दोनों में लानत है और आखे़रत में उसके लिए दर्दनाक अज़ाब है।

इन्नल्लज़ीन यूज़ूनल्लाह व रसूलोहू लअनाहुमुल्लाहो फिद्दुनिया वल आखेरते व आअद्द लहुम आज़ाबम मुहानी

सूरए अहज़ाब आयत 57

बेशक जो लोग ख़ुदा को और उसके रसूल को अज़ीयत देते है उनपर खुदा ने दुनिया और आखे़रत दोनो में लानत की है और उनके लिए रूस्वाई का अज़ाब तय्यार कर रखा है।

noorehaq

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