रोज़े अरबईन – इमाम हुसैन (अ.स.) का चेहलुम

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माहे सफर के आग़ाज़ से ही बहोत से अज़ादारे सैय्यदुश शोहदा (अ.स.) रोज़े अरबईन की तैयारी में लग जाते हैं, ख़ुसूसन वह जो करबला के सफ़र का इरादा रखते हैं। वैसे तो सरकारे सैय्यदुश शोहदा (अ.स.) की ज़ियारत के लिए साल के हर मौसम और हर माह में मोहिब्बाने आले मोहम्मद (स.अ.) करबला व इराक़ का सफ़र करते रहते हैं, मगर जो इज्तेमअ अरबईन के दिन करबला में होता है उतना किसी और दिन नहीं होता। यह रोज़े अरबईन क्या है और इस दिन की ज़ियारत की क्या फ़ज़िलत है? इस का एक मुख्त़सर जाएज़ा पेशे ख़िदमत है। रोज़े अरबईन को हज़रते सैय्यदुश शोहदा (अ.स.) की शहादत का चेहलुम है यानी आप (अ.स.) की शहादत के बाद चालिसवाँ दिन है, जो साहे सफ़र की 20 तारीख को होता है। उस दिन की ज़ियारत की फ़ज़िलत और ज़रूरत के लिए यह रिवायत काफी है कि इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने एक हदीस में “मोमिन” की पाँच अलामात का ज़िक्र किया है।

अलामातुल मोअमेने खमसुन: सलातो एहदा व ख़मसीन व ज़ियारतुल अरबईन…..

रोज़ 51 रकअत नमाज़ अदा करना, ज़ियारते अरबईन पढ़ना, अंगुठी को दाऐं हाथ में पहनना, नमाज़ में पेशानी को ख़ाक पर रखना और नमाज़ में “बिस्मिल्लाह” को बुलन्द आवाज़ में पढ़ना।

(बेहारुल अनवार ज 98 स 329)

उस दिन की तारीख़ी एहमियत यह है कि मोअर्रेख़ीन ने लिखा है कि उस दिन सहाबीए रसूल (स.अ.) जनाब जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अन्सारी शहादते इमाम हुसैन (अ.स.) के दिन – आशूर के बाद इमाम हुसैन (अ.स.) के पहले अरबईन पर इमाम की ज़ियारत के लिए करबला आए थे।

(तबरी, मोहम्मद बिन अली – बशारतुल मुसतफ़ा स 126)

इस ज़ियारत में जनाबे जाबिर के हमराह अतिय्यह औफी जो की इस्लाम की बड़ी शख्सियतों और मुफ़स्सिरे क़ुरआन के उनवान से पेहचाने जाते हैं भी थे। जाबिर और अतिय्या ने फ़रात के पानी में ग़ुस्ल किया और जिस तरह हाजी खुदा के घर के लिए एहराम बान्धते हैं, अपने आपको तैयार करके नंगे पाव और छोटे छोटे क़दमों के साथ शोहदा के मज़ार की तरफ रवाना हुए। सब से पहले इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्रे मुतह्हर पर तशरीफ ले गए और “हबीबी, हबीबी” की आवाज़ के साथ इमाम हुसैन (अ.स.) को मुख़ातिब करके गिरिया करने लगे। इसी हाल में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र से सवाल करते हैं: क्या यह हो सकता है कि दोस्त, दोस्त के सलाम का जवाब न दे? और फ़िर ख़ुद ही जवाब देते हुए कहते हैं: कैसे हो सकता है कि तुम हमारा जवाब दो जबकि तुम्हारा सर तन से जुदा है…..

यह भी मोअतबर हवालों से ज़ाहिर होता है कि अहले हरम शाम के ज़िन्दान से आज़ाद होकर उसी दिन करबला पहुँचे थे। सैय्यद इब्ने ताऊस (अ.र.) नक़्ल करते हैं कि: जब इमाम हुसैन (अ.स.) के अहले बैत (अ.स.) क़ैद से रिहाई के बाद शाम से वापस लौटे और इराक़ पहुँचे तो उन्होंने अपने क़ाफ़ले के रेहनुमा से कहा: हमें करबला के रास्ते से ले चलो, जब वह इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके अस्हाब के मक़तल में पहुँचे, तो जाबिर इब्ने अब्दुल्लाहे अन्सारी को बनी हाशिम के बाज़ लोगों के साथ और आले रसूलल्लाह (स.अ.) के एक मर्द को देखा जो इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत के लिए आए थे। वह सब एक ही वक़्त में मक़तल पर पहुँचे और सब ने एक दुसरे को देखकर गिरिया और अज़हारे हुज़्न किया और सरों और चेहरों को पीटना शुरू किया और एक ऐसी मजलिसे अज़ा बरपा की जो दिलख़राश और जिगर सोज़ थी। उस इलाक़े की औरतें भी उनसे मुल्हिक़ हुईं और कई दिनो तक उन्होंने अज़ादारी की। (इस तरह अज़ादारी और मजलिसे शोहदाए करबला की इब्तेदा हुई)।

(बिहारुल अनवार ज 45 स 146)

ज़ियारते अरबईन

शेख़ तूसी ने बयान किया है कि ज़ियारते अरबईन से मुराद 20 सफर को इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत है कि जो आशुरा के बाद चालिसवाँ दिन है, इस लिए उन बुज़ुर्गवार ने इस रिवायत को अपनी किताब तहज़ीबुल एहकाम की ज़ियारत के बाब में और अरबईन के आमाल में ज़िक्र किया है और उस दिन की मख़सूस ज़ियारत भी नक़्ल की है कि मरहूम मोहद्दिसे बुज़ुर्ग शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने किताब मफ़ातीहुल जिनान में ज़िक्र किया है। वह इस तरह है:

इमाम सादिक़ (अ.स.) ने रोज़े अरबईन की ज़ियारत तालीम फरमाई है, जिसकी इब्तेदा यह है – अस्सलामो अला वलिइल्लाहे व हबीबेहि

अरबईन की ज़ियारत का पैदल सफर

मुक़द्दस मक़ामात का सफर करना एक अज़ीम सवाब का हामिल है और इस सफ़र को प्यादा तै करना भी अपने आप में बड़ा अज्र रखता है। कुतुबे तारीख़ बताती हैं कि हसनैन करीमैन (अ.स.) यानी इमाम हसन (अ.स.) और इमाम हुसैन (अ.स.) ने बारहा प्यादा मदीने से मक्के को हज के लिए सफर इख्तियार किया है। यह इस के बावजूद के उन के पास सवारी होती थी बल्कि उनके हमसफ़र सवारी का इस्तेमाल करते थे मगर आप (अ.स.) हज़रात प्यादा ही सफ़र करते थे। इस बात से यह पता चलता है कि पैदल चलना ज़्यादा सवाब का हामिल है।

हाल फिलहाल में सैय्यदुश शोहदा (अ.स.) की ज़ियारत के लिए पैदल चलने का रिवाज मोहद्दिसे नूरी (अ.र.) ने शुरू किया है। आप ईदुज्ज़ोहा में यह नजफ से करबला का सफर प्यादा किया करते थे। दीगर मराजे केराम और ओलमा ने इस सफ़र को अरबईन में पैदल अदा करना शुरू कर दिया। आज इस सफ़रे ज़ियारत को कसीर तअदाद में इराक़ और ग़ैर इराक़ में पैदल अदा करते हैं। इस सफर में यानी नजफ से करबला के रास्ते में ज़ाएरीन की ख़िदमत करने का जज़बा जो इराक़ी अवाम दिखाती है उस की मिसाल शायद ही किसी और मक़ाम या मौके पर देखने को मिले। यह सफ़र जो पैदल उमूमन तीन दिन में तै होता है, इस में सिर्फ़ इराक़ी ही नहीं बल्कि दूसरे ममालिक के ज़ाएरीन भी शामिल होते हैं। हर उम्र के मुख्तलिफ़ रंग के, मुख्तलिफ़ मुल्क के, मुख्तलिफ़ ज़बान बोलने वाले अफ़राद गिरोह दर गिरोह “लब्बैक या हुसैन (अ.स.)” की सदा बुलन्द करते हुए करबला की तरफ़ बढ़ते रहते हैं। उनकी पज़ीराई के लिए मक़ामी अफराद अपने घर से निकल कर उन की ख़िदमत करते हैं। कोई ग़िज़ा फ़राहम करता है तो कोई मशरूबात की सबील करता है तो कोई ज़ाएरीन के आराम के लिए मकान का इन्तेज़ाम करता है। कुछ तो थके हुए पैरों की मालिश करके सवाब कमा लेते हैं।

ख़ुदा हम सब को ज़ियारत सैय्यदुश शोहदा (अ.स.) ख़ुसूसन रोज़े अरबईन की ज़ियारत की तौफ़िक़ इनायत फ़रमा।

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