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शहादते अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) और उसका हक़ीक़ी पसमंज़र

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19 रमज़ानुल मुबारक सन 40 हिजरी को सुबह की नमाज़ के वक्त एक ऐसा दिल दोज़ (दिल हिलाने वाला) वाक़िया ज़ाहिर हुआ जिसे मुसलमानों की तारीख़ आज तक नहीं भुला पाई। मस्जिदे कुफ़ा के मेहराबे इबादत में एक ख़ारजी मलऊन ने मुसलमानों के हाकिमे वक्त और ख़लिफ़ए रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) के सरे अक़दस पर हालते नमाज़ में एक ऐसी ज़र्ब लगाई कि आप की रीशे मुबारक (दाढ़ी) ख़ून से तर हो गई। उस मलऊन ने अपनी तलवार को ऐसे ख़तरनाक ज़हर में बुझाया था कि आपके ज़ख़्मी सर पर बंधी हुई पट्टी और चेहरए मुबारक दोनों यक्सां ज़र्द हो गए थे। आप पर ज़हर का असर इस क़द्र ज़्यादा सख़्त हुआ कि उसके नतीजे में दो दिन बाद 21 रमज़ान सन 40 हिजरी को आपकी शहादत वाक़ेअ हो गई।

इस तरह रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की वह पेशनगोई सच साबित हुई कि “ऐ अली! तुमको माहे रमज़ान में शहीद किया जाएगा।” इस बात पर तमाम मुअर्रेख़ीन का इत्तिफ़ाक़ है कि हज़रत अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) को शक़ी तरीन (बहुत बुरा) अब्दुर्रहमान इब्ने मुलजिम मुरादी (लानतुल्लाहि अलैहि) ने शहीद किया। इस शख़्स के बारे में तारीख़ बताती है कि यह एक ख़ारजी था, जिसने एक औरत के बहकाने पर और जंगे नहरवान में क़त्ल होने वाले ख़वारिज के ख़ून का बदला लेने के लिए इस काम को अंजाम दिया था। जंगे नहरवान हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) के लश्कर के हाथों बहुत से ख़वारिज मारे गए थे और बहुत से मैदान से भाग निकले। उन्हीं में से एक इब्ने मुलजिम (लानतुल्लाहि अलैहि) भी था। यह हक़ीक़त तो एक आम तारीख़ का हिस्सा है, और सब इसके क़ाएल हैं। मगर इसके साथ कुछ और बातें बयान की जाती हैं कि ख़वारिज ने सिर्फ़ अली ही के क़त्ल का मन्सुबा नहीं बनाया था बल्कि उनके निशाने पर शाम का बाग़ी मुआविया इब्ने अबी सुफ़्यान और उसका मुशीरे ख़ास अम्र इब्ने आस भी था। इन दोनों को क़त्ल करने की साज़िश भी ख़वारिज ने उसी दौर में रची थी। इस तरह इन तीन ख़ारजियों ने मिलकर मन्सूबा बन्दी की थी कि माहे रमज़ान की 11, 13, 17 या 19 तारीख़ में से किसी तारीख़ को मौक़ा पाकर अपने मन्सूबे पर अमल करते हुए हमला करेंगे। यह रिवायत कुछ इख़्तेलाफ़ के साथ तारीख़ी किताबों में न्क़्ल हुई है।

उनमें से तारीख़े तबरी, तारीख़े याक़ूबी, तबक़ात इब्ने साद वग़ेराह ज़्यादा मश्हूर हैं। जिसका ख़ुलासा यह है कि अब्दुर्रहमान इब्ने मुलजिम मुरादी ने मक्के में दूसरे दो ख़ारजीयों बरक इब्ने अब्दुल्लाह और अम्र बिन बक्र तमीमी से मुलाक़ात की। इन लोगों ने उस वक़्त की इस्लामी दुनिया की तीन बड़ी शख़्सियतों अली बिन अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम), मुआविया बिन अबी सुफ़्यान और गवर्नरे मिस्र अम्र इब्ने आस को मुसलमानों के मौजूदा हालात का ज़िम्मेदार क़रार दिया और अपने वक़्त की नापसंदीदा सूरते हाल को हल करने के लिए इन तीनों लोगों को क़त्ल करने और अपने आस्हाबे नहरवान के क़त्ल का बदला लेने का फ़ैसला किया। दरअस्ल हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) पर हमला करने और क़त्ल करने की मुहर्रिके नहरवान की वह ख़ातून बनी जिस से इब्ने मुलजिम को मुहब्बत थी। इस औरत का बाप और भाई जंगे नहरवान में मारे गए थे। उस ख़ातून ने इस शर्त पर शादी की हामी भरी कि इब्ने मुलजिम अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिस्सलाम) को क़त्ल कर दे। चुनांचे मसिज्दे कूफ़ा में इब्ने मुलजिम ने हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) पर हमला किया जिस से वह शहीद हो गए।

वहीं शाम में नमाज़े सुब्ह के लिए मुआविया ने किसी और को नमाज़ की इक़तेदा के लिए भेजा था जो बरक बिन अब्दुल्लाह ख़ारजी का शिकार बना और मुआविया बच गया। तीसरा शख़्स अम्र बिन बक्र जो मिस्र के गवर्नर इब्ने आस को क़त्ल करने के लिए गया था, वह अपने काम में नाकाम रहा और अम्र बिन आस भी बच गया।

यह रिवायत कई अक़्ली व इल्मी वजूहात की बिना पर ग़ैर क़ाबिले क़ुबूल है।

अव्वल यह कि अम्र बिन आस के बच निकलने का जो सबब बयान किया गया है वह इन्तेहाई मज़्हकाख़ेज़ (जोक्स) और अहमकाना (बेवकूफ़ी) है। (जिसे यहाँ बयान करना ग़ैर ज़रूरी है।) दूसरे यह कि बरक इब्ने अब्दुल्लाह का मुआविया के बदले किसी और को क़त्ल करना भी शक से खाली नहीं है।

यह कैसे मुम्किन है कि उसने मुआविया को पहचानने में ग़लती कर दी हो। यह उसी वक़्त मुम्किन है जब मुआविया ने हूबहू अपनी चालढ़ाल वाले शख़्स ही को मस्जिद भेजा हो, ताकि उसके बदले क़त्ल हो जाए। फ़िर सवाल पैदा होता है कि यह एहतियाती तदाबीर (सोचें) किस बुनियाद पर इख़तियार की गई। इस तरह के कई दूसरे सवालात और शुबहात हैं जिन के तारीख़ के पास कोई जवाब नहीं है। इन बातों के क़ते नज़र करते हुए यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि आख़िर अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) की शहादत के साथ साथ मुआविया पर हमला होने की बात क्यों बयान की गई?

आख़िर यह मनघड़त दास्तान क्यों बयान की गई?

इसमें वही साज़िश नज़र आती है जो रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की शहादत के सिलसिले में बयान की जाती है कि आँ हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) को एक यहूदी औरत ने जंगे ख़ैबर के मौक़े पर ज़हर दिया था, जिसकी बिना पर आप की शहादत वाक़ेअ हुई। जब कि हक़ीक़त कुछ और है। दरअस्ल उन लोगों का मन्शा यह था कि इस तरह की बातें बयान की जाऐं जिन से हक़ीक़ी क़ातिल पर पर्दा डाला जा सके। चुनांचे रिवायत की नौईयत व यकसानियत बताती है कि एक ही जैसे कारख़ाने से दोनों माल बनकर मंज़रे आम पर लाया गया है। ताकि अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) के हक़ीक़ी क़ातिलों पर पर्दा डाला जा सके ताकि लोग इस पूरे मामले में सिर्फ़ ख़वारिज को हि क़त्ले अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) का ज़िम्मेदार समझें और इस तरह हक़ीक़ी क़ातिल तक किसी का ज़हन न जा सके।

यहाँ तक तो सब पर यह बात ज़ाहिर है कि हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) के क़त्ल को इब्ने मुलजिम (लानतुल्लाहि अलैहि) ने अंजाम दिया है, मगर इस क़त्ल में एक ऐसी बड़ी ताक़त बराहे रास्त मुलव्विस है जिसने इस क़त्ल के लिए ज़मीन हमवार की है और वह है शाम का बाग़ी और दुश्मने अली (अलैहिस्सलाम) मुआविया इब्ने अबी सुफ़्यान (लानतुल्लाहि अलैहि)। हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) के क़त्ल में मुआविया और उसका मुशीर अम्र इब्ने आस दोनों शामिल हैं।

इन दोनों के नाम बतौर क़ातिले अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) मन्ज़रे आम पर न आ जाए इसलिए यह मनघड़त दास्तान बयान की गई है।

इस मौज़ू पर मरहूम अल्लामा सैय्यद सईद अख़्तर रिज़वी (रिज़्वानुल्लाह तआला अलैहि) ने अपने एक तहक़ीक़ी मक़ाले में तफ़सील से बहस की है। उनका यह मक़ाला किताब ‘इतमामे हुज्जत’ के नाम से शाया हुआ है। उस मक़ाले में आप ने क़त्ले अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) में मुआविया के किरदार पर गुफ़्तगू की है। उसमें यह बात बयान की गई है कि मुआविया ही ने अपने नमकख़्वारों के ज़रिए अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) की शहादत के लिए रास्ता हमवार किया था। जिस तरह उसने सिब्ते अक्बर इमाम हसन (अलैहिस्सलाम) को ज़हर देने के लिए उनकी बीवी जोदा को उकसाया था। उस मलऊना का बाप अश्अश बिन क़ैस अलकिन्दी मुआविया का नमकख़्वार था। और मौला अली (अलैहिस्सलाम) का दुश्मन था। इसी अश्अश ने 19 रमज़ान की रात इब्ने मुलजिम मलऊन को क़त्ले अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) के लिए तैयार किया था। (जिलाउल उयून, जिल्द 1, सफ़्ह 233)

इतना ही नहीं तारीख़ की किताबों में यह बात भी लिखी है कि मुआविया ने हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) की शहादत की ख़बर सुनकर ख़ुशी मनाई और अपनी कमीनगाह पर गाना बजाना किया। यही मौला अली (अलैहिस्सलाम) का वह दुश्मन है जिसने मिंबरों से अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) पर सब्बो शतम (गालियाँ) का सिलसिला शुरू करवाया, जो दौरे हुकूमते बनी उमय्या में होता रहा।

क्या उस जानी दुश्मन की मक्कारियाँ और हीला साज़ इक़्दाम को भला क़त्ले अली (अलैहिस्सलाम) की साज़िश से अलग कर सकते हैं? शाम के बाग़ी पर उसके बाप अबू सुफ़्यान पर और उसके बेटे यज़ीद पर और उसके ख़बीस ख़ानदान बनी उमय्या पर अल्लाह तआला की बदतरीन लानत हो। बेशुमार लानत।

noorehaq

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