अह्ले तसन्नुन और ख़ेलाफ़ते राशेदा
अह्ले तसन्नुन के यहाँ इस्लामी तारीख़ का पहला दौर यअ़्नी रसूले इस्लाम (स.अ़.व.आ.) के वेसाल के बअ़्द अबू बक्र, उ़मर, उ़स्मान और ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) और इमाम ह़सन (अ़.स.) के चन्द महीने का अ़हद, ख़ेलाफ़ते राशेदा कहलाता है। इनके नज़्दीक इस अ़हद की मज्मूई़ मुद्दत तीस साल है जिसमें अबू बक्र पहले ख़लीफ़ा है और ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) आख़री और चौथे ख़लीफ़ा हैं। इमाम ह़सन (अ़.स.) की ख़ेलाफ़ते ज़ाहिरी के छह महीने को अह्ले तसन्नुन मौला अ़ली (अ़.स.) की ख़ेलाफ़त का ही ह़िस्सा मानते हैं। यही वजह है कि अह्ले तसन्नुन इमाम ह़सन (अ़.स.) के दौरे ख़ेलाफ़त को ख़ेलाफ़ते राशेदा में शुमार करते हैं मगर ख़ुद इमाम ह़सन (अ़.स.) को पाँचवाँ ख़लीफ़ए राशेदा के तौर पर शुमार नहीं करते। अह्ले तसन्नुन के नज़्दीक इस दौर की ख़ुसूसियत येह थी कि येह क़ुरआन-ओ-सुन्नत की बुनियाद पर क़ाएम नेज़ामे ह़ुकूमत था।
अपनी बात की दलील के लिए वोह इस ह़दीस को पेश करते हैं:
“आँह़ज़रत (स.अ़.व.आ.) के आज़ाद कर्दा ग़ुलाम सफ़ीना ने ह़ुज़ूरे अकरम (स.अ़.व.आ.) का इर्शाद नक़्ल किया है: मेरी उम्मत में ख़ेलाफ़त तीस साल तक रहेगी, फिर इसके बअ़्द मुलूकीयत और सल्तनत आ जाएगी। सफ़ीना का शागिर्द सई़द बिन जुमहान कहता है फिर मुझ से सफ़ीना ने कहा अपनी उँगलियों पर गिनों अबू बक्र की ख़ेलाफ़त का दौर, उ़मर की ख़ेलाफ़त का दौर और उ़स्मान की ख़ेलाफ़त का दौर। फिर कहा उँगलियों पर गिनो ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) की ख़ेलाफ़तका दौर। वोह कहते हैं कि हम ने शुमार किया तो इस पूरी मुद्दत को हम ने तीस साल पाया। फिर मैंने सफ़ीना से कहा कि: बनी उमय्या येह दअ़्वा करते हैं कि मज़्कूरा ख़ेलाफ़त इन के ख़ानदान में ही है, तो सफ़ीना ने कहा कि बनी ज़ुरक़ा (नीली आँख वाली, बदचलन औ़रत के ख़ानदान वाले) झूठे हैं, वोह तो बदतरीन बादशाहों में से हैं।”
(सुनने तिर्मिज़ी, रक़म २२२६, जि.२, स.४६)
इस ह़दीस से अह्ले तसन्नुन येह नतीजा निकालते हैं कि क़ौले रसूल (स.अ़.व.आ.) के मुताबिक़ वोह ख़ेलाफ़त की जिसमें दीन और शरीअ़त और अ़द्ल-ओ-इन्साफ़ के साथ किसी और चीज़ की ज़रा सी भी आमेज़िश न होगी, तीस (३०) साल रहेगी। उसके बअ़्द ख़ेलाफ़त, मुलूकियत की शक्ल-ओ-सूरत में तब्दील हो जाएगी।
अह्ले तसन्नुन की किताबों में मौजूद इस ह़दीस की तश्रीह़ उनके उ़लमा ने इस तरह़ की है: ह़दीसे मज़्कूरा के रावी सफ़ीना ने तीस साल का जो ह़िसाब बयान किया है वोह तख़मीनन है, उन्होंने कसोर को बयान नहीं किया। चुनाँचे सह़ीह़ रवायात और मुस्तनद तारीख़ी किताबों में ख़ेलाफ़ते राशेदा की तीस साल मुद्दत को इस तरह़ बयान किया गया है कि अबू बक्र की ख़ेलाफ़त का ज़माना दो साल चार माह, उ़मर की ख़ेलाफ़त का ज़माना दस साल छह माह, उ़स्मान की ख़ेलाफ़त का ज़माना चन्द रोज़ कम बारह साल और ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) की ख़ेलाफ़त का ज़माना चार साल नौ माह रहा है। इस तरह़ चारों ख़ुलफ़ा की मज्मूई़ मुद्दते ख़ेलाफ़त उन्तीस साल सात माह होती है। और पाँच महीने जो बाक़ी रहे वोह ह़ज़रत इमाम ह़सन (अ़.स.) की ख़ेलाफ़त का ज़माना है। ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) की शहादत के बअ़्द मुसलमानों के सवादे अअ़्ज़म ने ह़ज़रत ह़सन बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम के हाथ पर बैअ़त की। पाँच या छह माह ह़ुक्मरानी करने के बअ़्द जब तीस सील की मुद्दत पूरी हो गई तो उन्होंने ह़ुकूमत मुआ़विया को सौंप करके ख़ुद किनारा कश हो गए। इस तरह़ ह़ज़रत ह़सन बिन अ़ली अ़लैहेमस्सलाम की मुद्दते ख़ेलाफ़त भी मशहूद लहा बिल ख़ैर में दाख़िल हुई। इस तरह़ ह़ज़रत इमाम ह़सन (अ़.स.) का दौर भी ख़ुलफ़ाए राशेदीन में शामिल है।
(शर्ह़े अल फ़िक़्ह अकबर, स.६८-६९; शर्ह़े अ़क़ाएदे नफ़्सी, स.१५१; शर्ह़े अल अ़क़ीदए तह़ाविया, स.५४५; अल ख़िलाफ़ा वल अमारा)
एक अ़जीब बात येह है कि अगर मौला अ़ली (अ़.स.) की शहादत के फ़ौरन बअ़्द दौरे ख़ेलाफ़ते राशेदा ख़त्म मान ली जाती तो येह कहा जा सकता था कि चूँकि अब कोई इस लाएक़ शख़्सीयत दुनिया में मौजूद न रही तो उम्मत को मजबूरन बादशाहों की पैरवी करनी पड़ी औैर ख़ेलाफ़त, मुलूकियत में तब्दील हो गई। मगर इमाम ह़सन (अ़.स.) की मौजूदगी में उम्मत का मुआ़विया की बादशाहत को क़बूल कर लेना, ख़ेलाफ़ते राशेदा के ढोंग की पोल खोल देता है।
एक सवाल तो यही है कि जब शेख़ैन की मुख़ालेफ़त करने वालों को मुरतद शुमार किया जाता है तो ह़ज़रत अ़ली अ़लैहिस्सलाम, जो ख़लीफ़ा बिल ह़क़ और मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ए राशिद थे, उनके मुख़ालिफ़ों की बग़ावत को ‘इज्तेहादी ख़ता’ और उनके मुज्तहिद कैसे माना जा सकता है? अह्ले तसन्नुन को चाहिए था कि उनके मुख़ालिफ़ों को इस्लामी ह़ुकूमत और ख़ेलाफ़ते रसूले अकरम (स.अ़.व.आ.) का बाग़ी शुमार करें मगर उन्होंने तो उन में से अक्सरीयत को ‘रज़ेयल्लाह’ का ख़िताब दिया है। ह़त्ता कि जनाबे अ़म्मार यासिर (जिनके बारे में क़ौले नबी (स.अ़.व.आ.) मशहूर है कि उनको बाग़ी गिरोह शहीद करेगा) के क़ातिल को भी वोह रज़ेयल्लाह कहते है।
दूसरा अहम सवाल जो पूछा जा सकता है वोह येह है कि जब इमाम ह़सन (अ़.स.) का दौरे ख़ेलाफ़त अल्लाह की शरीअ़त और रसूल (स.अ़.व.आ.) की सुन्नत पर मबनी था और ख़ेलाफ़ते राशेदा में शामिल था तो क्यों उम्मत ने उनको छोड़कर उनके मुख़ालिफ़ और बाग़ी मुआ़विया का साथ दिया? क्या मुसलमानों के नज़्दीक आज़ाद कर्दा ग़ुलाम अबू सुफ़ियान और जिगर ख़ाह हिन्दा के बेटे की मन्ज़ेलत नवासए रसूल (स.अ़.व.आ.) और सिब्ते अकबर से ज़्यादा थी? क्या इस्लामी फ़राएज़ और क़वानीन की समझ और उनको जारी करने की सलाह़ियत इमाम ह़सन (अ़.स.) में कम और मुआ़विया में ज़्यादा थी? या येह कि जो उम्मत सीराते मुस्तक़ीम की तरफ़ हेदायत की मुश्ताक़ रहती है (सूरह ह़म्द) उनकी हेदायत मुआ़विया कर सकता था और फ़र्ज़न्दे कुल्ले ईमान, आग़ोशे रेसालत के परवर्दा अस्ह़ाब, अह्ले किसा और अस्ह़ाबे मुबाहेला में शामिल, इमाम ह़सन (अ़.स.) नहीं कर सकते थे? लुत्फ़ की बात तो येह है कि मुसलमान ऐसे अस्लाफ़ का ख़ूब क़सीदा पढ़ते हैं।
ह़क़ीक़त तो येह है कि ‘ख़ुलफ़ाए राशेदा’ की इस्तेलाह़ रसूले इस्लाम (स.अ़.व.आ.) की राएज कर्दा नहीं है, इस की ईजाद दौरे ख़ेलाफ़ते बनी अ़ब्बास में की गई हैं। अगर येह इस्तेलाह़ रसूल (स.अ़.व.आ.) के ज़माने से मशहूर हुई तो येह कैसे मुमकिन हुआ कि दौरे ख़ेलाफ़ते बनी उमय्या में सत्तर साल तक ख़ोतबा मिम्बरों से चौथे ख़लीफ़ ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) पर लअ़्नत करते रहे। अगर दौरे बनी उमय्या में मुसलमान ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) को अपना चौथा ख़लीफ़ए राशेदा मानते थे तो क्यों इस लअ़्नत के रवाज को बर्दाश्त करते रहे? ह़क़ीक़त यही है कि ख़ेलाफ़ते राशेदा की इस्तेलाह़ को रसूले इस्लाम (स.अ़.व.आ.) की रेह़लत के तक़रीबन १०० साल बअ़्द बनी अ़ब्बास ने जन्म दिया है ताकि वोह बनी उमय्या की ह़ुकूमत को ग़ैर इस्लामी और अपनी ह़ुकूमत को रसूल (स.अ़.व.आ.) की ख़ेलाफ़त के तौर पर ज़ाहिर कर सकें।
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