इमामे मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की हयाते तय्येबा, एक मुख़्तसर तआरुफ़

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इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की विलादते बा सआदत एक रजबुल मुरज्जब 57 हिजरी में मदीनए मुनव्वरा में हुई। आप खानदाने इसमतो तहारत की वह पहले कड़ी हैं जिनका सिलसिलाए नसब माँ और बाप दोनों की तरफ से मौलाए काएनात हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) से जाकर मिलता है। इस लिए कि आपकी वालेदा इमाम हसन (अ.स.) से हैं और वालिदे गिरामी इमाम हुसैन (अ.स.)। (इब्ने खल्कान, वफ़यातुल आअयान, ज 4 स 471)

आपकी कुन्नीयत अबू जाफर और अलक़ाब हादी और बाक़िर हैं। बाक़िर आपका सब से मारूफ़ लक़ब है। आपको बाक़िर इस लिए कहा जाता है कि आप उलूमे अंबिया को शिगाफ़ता करने वाले हैं।

आपके इस लक़ब के सिलसिले में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अन्सारी से रिवायत मिलती है कि रसूलुल्लाह (स.अ.) ने आपको यह लक़ब इनायत फ़रमाया था और मुझ से कहा था कि उनका नाम मेरे नाम से शबीह है और वह लोगों में सब से ज़्यादा मुझ से मुशाबेह हैं। तुम उन्हें मेरा सलाम कहना। (याक़ूबी ज 2 स 320)

अपके इल्मी मर्तबे का आलम यह है कि आपके लिए अलफाज़ मिलते है कि “तफ़सीरे क़ुरआन, कलाम और हलालो हराम के एहकाम में आप यकताए रोज़गार थे” (इब्ने शहरे आशोब, मनाकिबे आले अबी तालिब, ज 4 स 195) और मुख़्तलिफ अदयानो मज़ाहिब के सरबराहों से मुनाज़ेरा करते थे। आपके इल्मी मर्तबे के लिए इतना काफ़ी है कि “अस्हाबे केराम, ताबइन और तबअ ताबइन और अलमे इस्लाम के अज़ीमुश्शान फ़ोकहा ने दीनी मआरिफ़ और एहकामात को आपसे नक़्ल किया है। आपको इल्म ही की बुनियाद पर अपने खानदान में फ़ज़िलत हासिल है।” (शेखे मुफीद, अलइरशाद ज 2 स 155)

आपने अपनी उम्र के चार बाबरकत साल अपने जद इमाम हुसैन (अ.स.) के सायए शफ़क़त में गुज़ारे और 38 साल अपने वालिदे गिरामी अली इब्नुल हुसान, सैयदे सज्जाद (अ.स.) के ज़ेरे साया बसर किए। आपका कुल दौरे इमामत 19 साल पर मुश्तमिल है। आप वाकए करबला के तन्हा कमसिन मासूम शाहिद हैं, जिन्होंने चार साल की कमसिनी में करबला के दरदनाक हवादिस को अपनी आँखों से देखा है। चुनान्चे आप ख़ुद एक मक़ाम पर फरमाते हैं “मैं चार साल का था कि मेरे जद हुसैन इब्ने अली (अ.स.) को शहीद किया गया। जो कुछ आपकी शहादत के वक़्त रूनुमा हुआ वह सब मेरी नज़रों के सामने है।” (याक़ूबी ज 2 स 320)

अपकी सीरत

आप लोगों के साथ घुलमिल कर रहते थे। लोगों में सादिक और अमीन के तौर पर जाने जाते थे। अपने आबाओ अजदाद की तरह मेहनत व मशक़्क़त करते थे। चुनान्चे तारीख़ में मिलता है कि एक दिन तपते हुए सूरज के नीचे आप खेतीबाड़ी में मसरूफ थे, किसीने आप को शदीद गर्मी में बेलचा चलाते हुए देख लिया तो कहा “आप भी इस गर्मी में तलबे दुनिया के लिए निकल आए? अगर इस हालत में आपको मौत आजाए तो क्या होगा?” आपने जवाब दिया “अगर मैं इस हालत में मर जाऊँ तो इताअते खुदावन्दी की हालत में इस दुनिया से जाऊँगा, इस लिए कि मैं इस मेहनत के ज़रिए ख़ुद को लोगों से बेनियाज़ कर रहा हूँ”। आप हमेशा ज़िक्रे ख़ुदा में मसरूफ़ रहते। बख़्शिशो अता में आप का कोई नज़ीर न था। (शेखे मुफ़ीद, अलइरशाद ज 2 स 161)

इमाम बाक़िर के दौर के हालात

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने अपने दौराने इमामत जिन मुश्किलात का सामना किया वह ख़ुदमें बहोत पेचीदा और रूह फ़रसा थीं, जिन में से कुछ अहम मुश्किलात यह हैं।

1) सियासी फ़साद

आपके दौरे इमामत में आले मरवान की हुक़ूमत थी, जिन्होंने अपनी हुकूमत के दौरान जाहिल रुसूम और जाहिल अफ़कार को इस्लामी मआशरे पर मुसल्लत कर रखा था और पूरे हुक़ूमती ढांचे में सियासी फ़साद की हुक़ुमरानी थी।

2) फ़रहन्गी व सक़ाफ़ती इन्हेराफ़

आले मरवान ने फ़रहन्गी व सक़ाफ़ती एतेबार से पूरे इस्लामी समाज का जीना दूभर कर दिया था और किसी को इस बात की इजाज़त नही थी कि इस्लामी और मोहम्मदी कलचर को मआशरे में बढ़ावा दे सके। इस्लामी तहज़ीब व सक़ाफ़त की जगह जाहिलाना रूसुमात ने ले रखी थी और मुन्हरिफ़ अफ़कार का दौर दौरानं था।

3) इज्तेमाई फ़साद

इज्तेमाई तौर पर उस वक़्त के इस्लामी मआशरे में ऐसा माहौल था कि हर तरफ़ भेदभाव, नस्ली बरतरी, नाइन्साफ़ी के कीड़े नज़र आ रहे थे और उन से मुक़ाबले का किसी को यारा ना था।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने उन हालात में तकैया करते हुए आहिस्ता आहिस्ता इस्लाम की हक़ीक़ी तालीमात से लोगों को रूशनास कराया और फ़रहंगी व सक़ाफ़ती मैदान में दर्स के ज़िरए तबदीली को अपना शेआर बनाकर मआशरे की इल्मी और फ़िक्री बुनियादों पर ख़ामोशी के साथ काम किया।

चुनान्चे आप (अ.स.) ने मस्जिदुन नबी में मसनदे दरस बिछा कर कुरआनी आयात की रौशनी में तशनगाने मआरिफ़े इस्लामी को सैराब किया और मस्जिदुन नबी को इस्लामी सक़ाफ़त के आलीशान महल में तबदील कर दिया। आपने बेशुमार शागिर्दों की तर्बियत की जिन्होंने करया करया जाकर इस्लाम की हक़ीक़ी तस्वीर को मुतआरिफ किया। 19 साल की जिद्दोजहद के दौरान आपने जिन शागिर्दों की तरबियत की उन में 467 लोगों के नाम मनाबेअ में अब भी मौजूद हैं। (शेख़ तूसी, रेजाल, 102) जिन में ज़ोरारा बिन आअयोन, अबू बसीर मुरादी, बुरैद बिन मआविया बजली, मोहम्मद बिन मुस्लिम सक़फी, फुज़ैल बिन यसार, जाबिर बिन यज़ीदे जोफी वग़ैराह ख़ुद अपने आप में एक इज्तेमा की हैसियत से पहचाने जाते हैं।

आपकी इल्मी और सक़ाफ़ती तहरीक ही का नतीजा है कि आज मकतबे इमामिया को एक ग़नी और हमहगिर मकतब के तौर पर जाना जाता है।

आज अगर मकतब इमामिया को एक मज़बूत तसव्वुरे काएनात रखने वाले मज़हब के तौर पर दुनिया में जाना जाता है तो यह आप ही की जांफिशानीयों और काविशों का नतीजा है। इल्मी और फ़िक्री हल्क़ों में जब भी शिअत की बात होगी, आपको कभी फ़रामोश नही किया जा सकता, इसलिए कि शिअत की असास और बुनियाद आपकी कावीशों की मरहूने मिन्नत हैं। आपने ज़ुल्मत व जहालत के घटाटोप अन्धेरों में मस्जीदे नबवी में बैठकर चिरागे इल्म न जलाया होता तो शायद आज तालीमाते मोहम्मद की जगह जाहिलाना रुसूम को तक़द्दुस हासिल होता। आज अगर मोहम्मदी तालीमात आम है और उनके अन्दर कशिश व जाज़्बियत पाई जा रही है तो यह नतीजा बाक़िरे आले मोहम्मद की जांफिशानियों का। जब तक दुनिया में इल्म रहेगा दुनिया आपको सलाम करती रहेगी।

इल्म का शहर भी सलाम कहे

तेरा ऐसा है मर्तबा बाक़िर

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