माहे मोहर्रम – माहे अज़ा

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दीगर मज़ाहिब अपने साल का आगाज़ खुशी के साथ मनाते हैं। एक दुसरे को नए साल की मुबारकबाद देते हैं, नये कपड़े वगै़रा पहनते हैं, वगै़रा वगै़रा । मगर मुसलमानों में ये रिवाज नही है । इसकी क्या वजह है?

इस बात से बहस नही के क्या इसलामी साल का पहला महीना मुहर्रमुल हराम है या ये कि साल का पहला महीना रबीउल अव्वल है। माहे मुहर्रम से साल का आगाज़ होता हो या न होता हो मगर ये तो तए है के ये महीना अहलेबैते पैग़म्बर के लिये ग़म का महीना है। इस महीने में वाक़ेऐ करबला रूनूमा हुआ जिस की याद अहलेबैते अतहार और उनके शियों के दिल को ग़म से भर देती है। एक मोतबर रिवायत जो शियों की कुतुबे अहादीस में नक़ल हुई है, में मिलता है, जिस में इमाम रज़ा (अ.स.) फ़रमाते हैं: ‘‘माहे मुहर्रम के शुरू होते ही कोई मेरे वालिद को मुसकुराता हुआ नही पा सकता था और आशूरा के दिल तक आपके चेहरे पर अन्दोह और परेशानी का ग़लबा होता था और आशूर का दिन आपके लिये मुसीबत और रोने का दिन होता था।’’

आप (अ.स.) फ़रमाते थे: ‘‘आज वो दिन है कि जिस दिन हुसैन (अ.स.) शहीद हुये हैं।’’

इस रिवायत में इमाम रज़ा (अ.स.) ने अपने बाबा इमाम मुसा काज़िम (अ.स.) की कैफियत का ज़िक्र किया है। इसी तरह अहलेबैत की हर एक फ़र्द पर माहे मोहर्रम का चाँद ग़म के आसार पैदा करता रहा।

अहलेबैते नबवी (स.अ.व.व.) ने सन 10 हिजरी के बाद हर माहे मोहर्रम को सिर्फ़ सिब्ते असग़र, सैय्यदुश्शोहदा इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत का ग़म मनाया है। इसी माह की 25 तारीख़ को फ़रज़न्दे इमाम हुसैन (अ.स.) इमाम ज़ैनुलआबेदीन (अ.स.) की शहादत भी वाक़ेए हुई है। मगर माहे मोहर्रम के अय्याम में शोहदाए कर्बला और असीराने कर्बला की याद मनाई जाती है और उन पर ढाये जाने वाले मसायब व आलाम को याद करके गिरया किया जाता है और उनका ग़म मनाया जाता है।

शेख़ सदूक़ की किताब ‘अलअमाली’ में इसी माहे अज़ा के ज़िम्न में एक रिवायत नक़्ल है जिसमें इमाम अली इब्ने मुसा (अ.स.) ने इब्ने शबीब से फरमाया: ‘‘मोहर्रम वह महीना है जिस में अहले जाहेलियत (कुफ़फा़रे मक्का) जंग करने को हराम समझते थे मगर अफ़सोस मुसलमानों ने इसी महीने में हमारा ख़ून बहाया, हमारी हुरमत को पामाल किया, हमारी औरतों और बच्चों को क़ैदी बनाया…..।’’

(अमाली  सदूक़: सफ़ा 111, बिहारूल अनवार जिल्द 44 सफ़ा 283)

यक़ीनन ये महीना अहलेबैत अतहार के लिये मुसीबत का महीना रहा है। इस माह की दो तारीख़ को इमाम हुसैन (अ.स.) का क़ाफ़िला सर ज़मीने कर्बला पर वारिद हुआ। हैफ है कि ख्यामे हुसैनी दरया के किनारे नस्ब नही करने दिये गये। दुश्मन के लशकर की तादाद दिन ब दिन बढ़ती चली गई। मोहर्रम की सात तारीख़ से इमामे मज़लूम और उनके असहाब पर पानी बिल्कुल बंद कर दिया गया। बच्चों की ‘अलअतश’ ‘अलअतश’ की सदाओं ने दुशमन के दिल पर कोई असर न किया यहाँ तक के दसवीं मोहर्रम को इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके ख़ानवादे के तमाम अफ़राद और तमाम असहाब को भूका प्यासा शहीद कर दिया गया। असरे आशूर पंजतने पाक की आख़री फ़र्द को मज़लूमाना तरीक़े से शहीद कर दिया गया।

इसके बाद जो हुआ वो और अलमनाक और ग़मनाक है। सय्यदे मज़लूम के ख्याम को लूट कर उनकी नामूस और बच्चों को क़ैदी बनाया गया। ये सारा माजरा सरज़मीने कर्बला पर मोहर्रम के सुरज व चाँद देखते रहे।

इन तमाम मसाएब को इमाम अली इब्न मुसा (अ.स.) ने अपने सहाबी से इस तरह नक़्ल किया है :

‘‘  …अए फरज़न्दे शबीब ! माहे मोहर्रम की हुरमत को अहले जाहेलियत (कुफ़फा़र) भी मानते थे और इस महीने की हुरमत का ख्याल करते हुये इस माह न किसी पर ज़ुल्म करते थे न किसी से जंग करते थे। मगर अफ़सोस उम्मत ने न इस महीने की हुरमत का ख्याल किया और न ही अपने नबी (स.अ.व.व.) की हुरमत का ख्याल किया। उन्होंने इसी महीने में रसूल की ज़ुररीयत को क़त्ल किया और उनकी बेटियों को क़ैदी बनाया और उनकी हुरमत को पाश पाश कर दिया। अल्लाह कभी उनके इन जराएम को माफ नही करेगा।” (अवालिम जिल्द 17 , सफा 538-539)

इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद , चाहने वालों और अहले तशी के लिये ये अज़ादारी का महीना क़रार पाया। उसी ज़माने से ही , अइम्माए मासूमीन (अ.स.) आर अहले तशीय्यो इस महीने में अज़ादारी मनाने का ऐहतेमाम करते थे। तशय्यो की पहचान ही ये है के अहलेबैत  की ख़ुशी में ख़ुशी और उनके ग़म में ग़म मनाते हैं।

यही बाइस है कि अहले तशय्यो माहे मोहर्रम को माहे ग़म के तौर पर मनाते हैं जो कुतुबे मोतबर और सिका रिवायत की बुनियाद पर यही सीरते नबी अकरम (स.अ.व.व.) है। अल्लाह ताला तमाम मुस्लमानों को इस सीरते नबवी (स.अ.व.व.) पर अमल की तौफीक़ अता फरमाए। आमीन !

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