दुश्मने अ़ली (अ़.स.) से बराअत ज़रूरी है

पढ़ने का समय: 3 मिनट

दुश्मने अ़ली (अ़.स.) से बराअत ज़रूरी है

इस्लाम में और ख़ुसूसन शीआ़ मकतबे फ़िक्र में, दुश्मनाने ख़ुदा और रसूल से बराअत करने को वाजिब क़रार दिया गया है। इस बाबत क़ुरआन में मुतअ़द्दिद आयात मौजूद हैं। मगर जब ह़ज़रत अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़.स.) के दुश्मनों के मुतअ़ल्लिक़ यही बात कही जाती है तो बअ़्‌ज़ लोग एअ़्‌तेराज़ करते हैं। लेहाज़ा जब अमीरुल मोअ्‌मेनीन (अ़.स.) के दुश्मनों पर तबर्रा की बात आती है तो, एक गिरोह येह कहता है कि हम को अमीरुल मोअ्‌मेनीन (अ़.स.) के दुश्मनों पर तबर्रा करने से गुरेज़ करना चाहिए, क्योंकि दीगर इस्लामी फ़िर्क़े उन लोगों (मलाई़न) की तअ़्‌ज़ीम करते हैं। इसलिए हमारा उन लोगों से तबर्रा करना मुसलमानों की नाराज़गी का सबब बनता है। इसलिए उन मुसलमानों की ख़ातिर और वह़दते मुस्लेमीन के वसीअ़्‌ तर तक़ाज़ों के पेशे नज़र हमें अमीरुल मोअ्‌मेनीन (अ़.स.) के दुश्मनों के ख़िलाफ़ तबर्रा करने से गुरेज़ करना चाहिए और उसके बर अ़क्स हमें भी उन ह़स्तियों का एह़्तेराम करना चाहिए।

जवाब

इस एअ़्‌तेराज़ के कई जवाब दिए जा सकते हैं। मगर यहाँ पर क़ौले मअ़्‌सूम से इस्तेदलाल करना बेहतर समझते हैं। जब हम इमाम मोह़म्मद बाक़िर (अ़.स.) से मुतअ़ल्लिक़ एक वाक़ेआ़ की तरफ़ रुजूअ़्‌ करते हैं तो पाते हैं कि ह़ज़रत ने तबर्रा की अहम्मीयत को उजागर किया है और उसे अमीरुल मोअ्‌मेनीन (अ़.स.) के चाहने वालों पर वाजिब क़रार दिया है।

तबर्रा पर इमाम बाक़िर (अ़.स.) ने फ़रमाया:

“ऐ अल्लाह के बन्दों, इस क़ौम का अ़ली इब्ने अबी तालिब (अ़.स.) पर कितना ज़ुल्म है और उनके साथ इनका इन्साफ़ कितना कम है, इन लोगों ने उनको फ़ज़ाएल से मह़रूम कर दिया और उसके बजाए सह़ाबियों को अ़ता किया, हालाँकि अ़ली (अ़.स.) उन में से सबसे बेहतर थे। फिर वोह कैसे अ़ली (अ़.स.) को इस मक़ाम से दूर रख सकते हैं जो उन्होंने दूसरों को अ़ता किया है।”

उनसे पूछा गया: वोह कैसे हुआ, ऐ फ़र्ज़न्दे रसूल? इमाम बाक़िर (अ़.स.) ने फ़रमाया:

तुम ने अबू बक्र इब्ने क़ह़ाफ़ा की वेलायत को मान लिया और उनके दुश्मनों के ख़िलाफ़ तबर्रा किया, वोह जो कोई भी हो, और इस तरह़ तुम ने उ़मर इब्ने ख़त्ताब की वेलायत को मान लिया और उनके दुश्मनों के ख़िलाफ़ तबर्रा किया, वोह जो कोई भी हो, और तुम ने उ़स्मान बिन अ़फ़्फ़ान की वेलायत को मान लिया और उन के दुश्मनों के ख़िलाफ़ तबर्रा किया, वोह जो कोई भी हो, यहाँ तक कि मुआ़मेला ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) तक पहुँच गया जब तुम ने कहा, तुम उनके दोस्तों की वेलायत रखते हो लेकिन उनके दुश्मनों से तबर्रा न करो, बल्कि (तुम दअ़्‌वा करते हो) हम उन से मोह़ब्बत करते हैं।

और उन के लिए येह कैसे जाएज़ है कि येह दअ़्‌वा करें जबकि रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) ने ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के बारे में फ़रमाया था: ऐ अल्लाह! तू उससे मोह़ब्बत कर जो अ़ली से मोह़ब्बत करता है और उन को दुश्मन रख जो अ़ली को दुश्मन रखता है, और उसकी मदद कर जो उनकी मदद करता है और उसको छोड़ दे जो उनको छोड़ दें।

फिर आप देखते हैं उनको कि उन लोगों ने ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के दुश्मन को दुश्मन नहीं रखा न ही उनको छोड़ा जिसने अ़ली (अ़.स.) को छोड़ दिया। येह इन्साफ़ नहीं है।

दूसरी नाइन्साफ़ी येह है कि जब अल्लाह तआ़ला ने रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) की दुआ़ओं और अल्लाह तआ़ला के नज़्दीक आप की बुज़ुर्गी को जिन फ़ज़ाएल से मुमताज़ किया है तो वोह उसकी तरदीद करते हैं लेकिन जो कुछ भी सह़ाबाए केराम के लिए मन्क़ूल है वोह उसे क़बूल करते हैं, वोह कौन सी चीज़ है जिसमें उसे ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के लिए रद्द करते हैं और उसे दूसरे अस्ह़ाबे रसूलुल्लाह (स.अ़.व.आ.) की तरफ़ मन्सूब करते हैं।”

(तफ़सीर इमाम ह़सन अ़स्करी (अ़.स.) स.५६२; अल एह्तेजाज, जि.२, स.३३०; बेह़ारुल अनवार, जि.२१, स.२३९; तफ़सीरे अ़याशी से सूरह तौबा (९), आयत नंबर ११८ से ज़ाहिर है)

येह रवायत तबर्रा पर एक रोशन दलील है और इस तरह़ और बहुत सी दलीलें हमारी किताबों में मौजूद हैं कि जिन से तबर्रा का वुजूब साबित होता है। अमीरुल मोअ्‌मेनीन (अ़.स.) के तमाम दुश्मनों से, कत्अ़्‌ नज़र उन दुश्मनों की ह़ैसीयत और इज़्ज़त, बराअत करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है। चाहे उन दुश्मनों की फ़ेहरिस्त में नामूर अस्ह़ाब या अज़्वाजे नबी ही क्यों न शामिल हो और मुसलमानों के बअ़्‌ज़ तबक़ों के नज़्दीक उनकी तअ़्‌ज़ीम ही क्यों न की जाती हो।

“नबी को और वोह लोग जो ईमान लाए हैं, ज़ेबा नहीं है कि मुशरिकों के लिए मग़फ़ेरत की दुआ़ करें, चाहे वोह उनके रिश्तेदार ही क्यों न हो, जबकि उन पर येह बात खुल चुकी है कि वोह जहन्नम के मुस्तह़क़ है…मगर जब उस पर येह बात खुल गई कि उसका बाप ख़ुदा का दुश्मन है तो वोह उससे बेज़ार हो गया।”

(सूरह तौबा, आयत ११३-११४)

अगर इस आयत में ख़ुद अपने बाप और क़रीबी रिश्तेदारों की मोह़ब्बत से रोका गया है तो येह कहाँ से सवाल पैदा होता है कि ह़ज़रत अ़ली (अ़.स.) के दुश्मनों की इ़ज़्ज़त की जाए या उन से मोह़ब्बत की जाए?

Be the first to comment

Leave a Reply