जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (अलैहास्सलाम) और ताग़ूत का इनकार

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ला इक्राह फ़िद्दीने कद्तबय्यनर्रुश्दो मिनल ग़य्ये फ़मय्यकफ़ुर बित्ताग़ूते व योमिम बिल्लाहे फक़दिस तम्सक बिल उर्वतिल बुस्क़ा लन फ़िसाम लहा वल्लाहो मसीउन अलीम। (सूरए बक़रह, आयत 256)

दीन में जब्र नहीं है, यक़ीनन नेकी को गुम्राही से अलग करके बयान कर दिया गया है। पस जिस किसी ने ताग़ूत (बातिल) का इनकार किया और अल्लाह पर ईमान ले आया बस उसी ने अल्लाह की मज़्बूत रस्सी को थामा है और अल्लाह सुन्ने और जानने वाला है।

रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की एक बहुत ही मश्हूर हदीस है जिस पर तमाम अह्ले इस्लाम मुत्तफ़िक़ हैं। तमाम मुसलमान इस बात को क़ुबूल करते हैं कि उम्मत के बहत्तर (72) फ़िर्क़े होंगे, मगर उनमें सिर्फ़ एक ही नाजी (जन्नती) है। यह उम्मत में इख़्तिलाफ़ आज की बात नहीं है बल्कि मुर्सले आज़म (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की शहादत के फ़ौरन बाद ही इसलाम में दो गिरोह वजूद में आ गए थे। उस ज़माने में जो कुछ हुआ उसके असरात इतने गहरे हैं कि इस्लाम का एक गिरोह दूसरे गिरोह को गुम्राह और ख़ुद को हिदायत याफ़्ता बताता है। इतना ही नहीं बल्कि नौबत यहाँ तक आ गई है कि अब मुसलमान एक दूसरे को काफ़िर कहने से भी गुरेज़ नहीं करते। हक़ीक़त तो यह है कि किसी के मोमिन कहने से न कोई मोमिन होता है और ना ही काफ़िर कहने से कोई काफ़िर हो जाता है। क़ुरआने करीम ने इस्लाम और कुफ़्र के दरमियान हद्दे फ़ासिल खींचते हुए “फ़मय्यक्फ़ुर बित्ताग़ूते व योमिम बिल्लाहे…” की बात की है, बातिल का इंकार करने वाला और अल्लाह पर ईमान रखने वाला ही अल्लाह की मज़बूत रस्सी से जुड़ा हुआ है।

यह भी एक तारीख़ी हक़ीक़त है कि आँ हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने अपनी ज़िन्दगी में बार बार मुसलमानों को गुमराही से बचाने का बेहतरीन रास्ता बताया है, जहाँ आप ने पेशनगोई करते हुए इन हालात की ख़बर दी थी कि किस तरह उम्मत फ़िर्क़ो में बटकर गुमराही इख़्तियार करेगी। वहीं आँ हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने मुसलमानों को इस गुमराही से बचने का रास्ता भी बताया था। दोनों तरफ (सुन्नी, शिया) की मोतबर किताबों में ख़ुसूसन सिहाए सित्ता में सरवरे काएनात का यह क़ौल नक़्ल हुआ है कि अगर तुम मेरे सक़लैन (दो गिराँक़द्र वज़्नी चीज़ों) से वाबस्ता रहे तो हरगिज़ गुमराह न होगे, एक अल्लाह की किताब और दूसरे मेरे अह्लेबैत (अलैहिमुस्सलाम)। इसीलिए अगर किसी को सिराते मुस्तक़ीम को अपना कर नजात हासिल करना है तो उसे उस रास्ते का इन्तेख़ाब करना चाहिए, जो क़ुरआन और अहलेबैत (अलैहिमुस्सलाम) ने बताया है। अहेलबैत (अलैहिमुस्सलाम) की सबसे अहम फ़र्द और मह्वरे अस्हाबे किसा दुख़्तरे रसूल जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (अलैहास्सलाम) हैं। रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की शहादत के बाद ज़माने ने जो इन्क़ेलाब देखा उसमें इस्लाम को दो हिस्सों में बंट्ते हुए भी देखा। एक गिरोह ने आँ-हज़रत के गोद के पाले और बाबे मदीनतुल इल्म हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) को अपना इमाम माना जबकि दूसरे गिरोह ने मुसलमानों के ख़ुद साख़्ता (ख़ुद बानाए हुए) ख़लीफ़ा की बैअत करली। यह बात सुरज की तरह रौशन है कि रसूल की बेटी जनाबे सय्यदा (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने ख़लीफ़ए अव्वल की हरगिज़ बैअत नहीं की बल्कि उनसे सख़्त नाराज़ रहीं। आपकी नाराज़गी का सुबूत उन रिवायतों में मिल जाता है जो इस ज़िम्न में (इस सिलसिले में) सही बुख़ारी में आएशा से नक़्ल हुई हैं।

उस नाराज़गी का सबब सिर्फ़ बाग़े फ़िदक का ग़स्ब करना ही नहीं था बल्कि यह भी था कि मुसलमानों ने एक जुट होकर ग़दीर में अली (अलैहिस्सलाम) की ताजपोशी के ऐलान को भुला दिया और ताग़ूत की पैरवी को दीन बना लिया।

जनाबे सय्यदा (अलैहास्सलाम) ने जो ख़ुतबए फ़दक इर्शाद फ़रमाया उसमें आप ने अपने इस इक़्दाम की वजह बयान फ़रमाई है। और मुसलमानों को उनकी अह़्दशिकनि (बोदे को तोड़ने) पर तंबीह की है और उनपर हुज्जत तमाम की है। “फ़िर तुम्हे ख़िलाफ़त हासिल करने की इतनी जल्दी थी कि ख़िलाफ़त के बिदके हुए नाक़े (ऊँट) के राम होने और मिहार थामने का भी तुमने मुश्किल से इन्तेज़ार किया। फ़िर तुमने आतिशे (आग) फि़त्ना को भड़काया और उसके शोले फैलाने शुरू कर दिए। इस तरह तुम शैतान की गुमराहकुन पुकार पर लब्बैक कहने लगे। तुम दीन के रौशन चिराग़ बुझाने और बरगुज़िदा नबी की तालीमात से चश्मपोशी (अनदेखा) करने लगे।” (ख़ुतबए फ़दक, किताब अल एहतेजाज, जिल्द 1 – शर्हे नहजुल बलागा़, जिल्द 12)

जब आप (अलैहास्सलाम) के घर पर लोग ख़लीफ़ा के लिए बैअत तलब करने के लिए आए तो आप (अलैहास्सलाम) ने उनका मुक़ाबला किया और अपने शोहर का दिफ़ा किया ताकि तारीख़ में यह बात लिखी जाए, दर्ज हो जाए कि फ़ातेमा (अलैहास्सलाम) के घर पर हमला हुआ था और यक़ीनन उनपर ज़ुल्म करनेवाला कभी ख़िलाफ़त का हक़दार नहीं हो सकता। इसकी वजह यह क़ुरआन का यह उसूल है कि जिसके तह्त मन्सबे इमामत कभी ज़ालिमों को नहीं मिलता। (सूरए बक़रह, आयत 124)

आपका यह इक़्दाम इसलिए भी ज़रूरी था कि तारीख़ जान ले कि ख़लीफ़ा की बैअत न तो रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की बेटी ने की थी न ही उनके घरवालों ने की। इसलिए जो यह शोर है कि हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) ने बिलआख़िर ख़लीफ़ा की बैअत कर ली थी या तो यह झूट है या यह बैअत जब्रन हासिल की गई थी। सही बुख़ारी और सही मुस्लिम के बहुत से आब्वाब में यह बात साफ़ तौर पर नक़्ल हुई है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की बेटी ख़लिफ़ए अव्वल से नाराज़ थीं।

एक रिवायत में यह बात आएशा से नक़्ल हुई है कि जिगर पारए रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) अबूबक्र और उमर से मरते दम तक नाराज़ थीं, और यह नाराज़गी इतनी शदीद (सख़्त) थी कि आप ने उन दोनों की माफ़ी को भी क़ुबूल नहीं किया। बल्कि इसके बरअक्स (ख़िलाफ़) उनपर ज़ाहिर कर दिया कि वह वाक़ेअन उन दोनों से नाराज़ है। और उन दोनों की शिकायत अपने बाबा रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) से करेंगी। (सही बुख़ारि, किताब 59, हदीस 546 / किताब 80, हदीस 718 / सही मुस्लिम, किताब 19, हदीस 4352, 4354)

इन बातों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की बेटी ने अपने वालिद (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की रहलत के बाद ख़लीफ़ए अव्वल की बैअत से इनकार किया और उनसे सख़्त नाराज़ रहीं। आप ने इन पूरआशोब (सख़्त) माहोल में क़ुरआनी हुक्म पर अमल करते हुए ताग़ूत का इनकार किया और क़ौले रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) पर अमल करते हुए अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) की इमामत पर क़ाएम रहीं। और उनके दिफ़ा में शहीद हो गईं। इतना ही नही आप ने वसीयत फ़रमाई कि उनके जनाज़े में न कोई अन्सार शामिल हो और न ही कोई मुहाजिर, ताकि आने वाली नस्लों तक यह बात बहुँचे कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की इकलौती बेटी जब इस दुनिया से रुख़्सत हुई तो मुसलमानों की अक्सरियत से नाराज़ थीं और बस वही लोग उनके जनाज़े में शरीक थे जो दीने हक़ से वाबस्ता थे। इस तरह ख़ातूने मह्शर (अलैहास्सलाम) ने अपने इस इक़्दाम के ज़रिए हक़ को बातिल से अलग करके बयान कर दिया। अब जो चाहे इसे क़ुबूल करके नाजी (जन्नती) हो जाए और जो चाहे इसे रद करके ह़लाक हो जाए।

जनाबे फ़ातेमा (अलैहास्सलाम) हक़ और बातिल का मेयार हैं, उन्हें नज़रअन्दाज़ करके कोई हिदायत याफ़्ता नहीं हो सकता है।

 

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