इमाम बाकि़र (अ.स.) का एक मुख्त़सर मुनाज़ेरा

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शियों पर जो ऐतेराज़ात होते रहते हैं उन में से एक ऐतेराज़ मुताअ( आरज़ी निकाह) के सिलसिले में किया जाता है। उनके मुखा़लेफीन का ये इल्ज़ाम है कि शियों ने मज़हब में एक नई चीज़ अक्द़े मुताअ (आरज़ी निकाह) के ज़रीये बिदअत पैदा की है। और एक ऐतेराज़ मुताअ के ख़िलाफ़ ये भी है कि अईम्मा मासूमीन (अ.स.) के दौर में इसका कोई जवाज़ नहीं मिलता है। अईम्मा ए अहलेबैत (अ.स.) भी इस अक्द़े मुताअ के का़यल नहीं थे बल्कि ये बदकारी शियों के उलमा ने रायज की है।

जवाबः

इस अक्द़े निकाह यानी मुताअ का जवाज़ कुरआन मजीद की आयात ,मुसतन्द अहादीस और सहाबाए कराम के अमल में मौजूद है। इस ऐतेराज़ के जवाब में अहले तश्ययों उलमा ने मुतअददि मका़ले और किताबचे भी तहरीर फरमाये हैं। इस मुख्त़सर आरटीकल में मुमकिन नही है कि हम इस मौज़ु से मुतालिक मुकम्मल तफ़सीलात को बयान करें।

याद रहे कि ये ऐतेराज़ या शियों पर ये इलज़ाम लगाना कुछ नया नहींं है। जब से दुसरे ख़लीफ़ा ने इस को हराम किया है तब से इसको मुबाह जानने के जुर्म में ये बात गढ़ी जाती रही है कि शियों ने इस बिदअत को रायज किया है। हकीक़त तो यह है कि शियों का अकी़दा ये है कि हलाल मुहम्मदी ता क़यामत हलाल रहेगा।इसको कोई हराम नही कर सकता । यहाँ पर अक्द़े मुताअ(आरजी़ निकाह) के सिलसिले में अईम्मा मासूमीन (अ.स.) के नज़रियात को पेश करने के लिये एक जामेअ और दिलचस्प मुनाज़ेरा नक्ल कर रहे हैं।

रिवायत की गई है कि अबदुल्लाह इब्न मोअम्मर लैसी ने इमाम बाकि़र (अ.स.) से शिकायत की। मुझे इत्तेला मिली है कि आप मुताअ (आरज़ी निकाह) की इजाज़त देते हैं।

इमाम (अ.स.): अल्लाह ने जिसे अपनी किताब में जायज़ क़रार दिया है और हदीसे रसूल (स.अ.व.व.) सुन्नत जिसकी तस्दीक करती है, सहाबाकिराम ने जिसे पर अमल किया उसे हम हराम कैसे कर सकते हैं।

अबदुल्लाहः मगर उमर ने तो इसको हराम क़रार दिया है।

इमामः तुम अपने (रहबरान) असहाबे रसूल की सीरत पर अमल करते हो और हम ख़ुद रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की सुन्नत पर अमल करते हैं।

अबदुल्लाहः क्या आप इस बात से राज़ी होंगे कि आपकी औरतें इस निकाह आरज़ी में मुलव्विस (लिप्त) हों।

इमाम: अए अहमक़! यहाँ औरतो को इस बहस में शरीक करने की क्या जरूरत है ?

बेशक अल्लाह ने अपनी किताब में इस को जायज़ क़रार दिया है और अपने बंदों की इसकी इजाज़त भी दी है, फिर तुमको या किसी और को क्या इख़तेयार है कि लोगों को इससे रोकें।

(अच्छा तो ये बताओ) क्या तुम इस बात से राज़ी हो कि तुम्हारी औरतें मदीने के जुलाहों (बुनकरों) में से किसी से निकाह करें?

अब्दुल्लाहः नहीं।

इमामः तुम ऐतेराज़ करने वाले कौन होते हो जबकि अल्लाह ने इसकी इजाज़त दी है?

अब्दुल्लाहः ये इसलिये कि ये बात मेरे लिये का़बिले क़ुबूल नही है कि एक जुलाहा (बुनकर) मेरी बहन या बेटी का शरीके हयात बने।

इमामः जब अल्लाह इस बात से राज़ी व खुश्नूद है और वह इन (जुलाहों) का निकाह जन्नत की हूरों से कर दे और वह इसके साथ जन्नत के बाग़ात में हमेशा रहे, फिर तुम को क्या परेशानी है कि अपनी औरतों को उनका शरीके हयात न बनने दो।

अब्दुल्लाह ने मुसकुरा कर कहाः आपका सीना इल्म से ऐसे लबरेज़ है जिस तरह एक सरसबज़ व शादाब दरख़्त होता है, जिसके फल आपके लिये और इसका रिज़क लोगों के लिये है।

बेहररूल अनवार, जिल्द 47, सफा, 356, कशफुलगुम्मा (अली इब्ने मुसा अरबली, मुतवफफी 93 हिजरी )

इस मुख्त़सर मुनाज़ेरे में कुछ अहम नुकात ग़ौर तलब हैं।

1) ये के जब क़ुरआन और सुन्नत में अक्दे़ मुताअ को मुबाह करार दिया गया है तो किसी को इख्ते़यार नही है कि इसको हराम समझे।

2)  ये कि अईम्मा अहलेबैत (अ.स.) मुताअ को हमेशा से हलाल और मुबाह जानते रहे हैं।

3) ये कि जो इस अक्द़े मुताअ को हराम करार देता है वह सुन्नत उमर का पैरोकार है और सुन्नते मोहम्मदी (स.अ.व.व.) से उसका इनहेराफ़ है।

4) ये कि शियों पर ये ऐतेराज़ करना ग़लत है कि शियों ने इस अक्द़ को अपने लिये मुबाह कर लिया है । अगर किसी को अक्दे़ मुताअ से परेशानी है तो वह अल्लाह और क़ुरआन पर ऐतेराज़ करे क्योंकि अल्लाह ने इसे अपने बन्दों के लिये मुबाह बनाया है। (ये भी याद रहे कि क़ुरआन की कोई आयत अल्लाह ने शियों के मशवरे पर नही नाज़िल की है और न ही शियों की फ़रमाईश पर मुताअ मुबाह किया गया है।)

5) ये के किसी औरत का चाहे दाएमी अक्द़ हो या आरज़ी निकाह हो उस औरत के मेयार और समाजी मरतबें के मुताबिक़ ही होना चाहिए है।

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