अमीरुल मोमेनीन के क़ातिलो पर ख़ुदा की लानत

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माहे रमज़ान को साल के दूसरे महीनों पर जो फज़ीलत हासिल है उनमें से एक यह भी है कि इस महीने में क़ुरान नाज़िल हुआ। जिस शब क़ुरान नाज़िल हुआ है उसे शबे क़द्र कहा जाता है। इस शब की फज़ीलत ज़ाहिर करने के लिए अल्लाह ताला ने अपनी किताब में “लैलतुल क़दरे खैरुम मिन अल्फे़ शहर” फ़रमाया है। यानी शबे क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है। आहादीस में वारिद हुआ है कि इस रात को लोगों की क़िस्मत का फ़ैसला भी होता है। इस रात लोगों की साल भर की तक़्दीर लिखी जाती है। लिहाज़ा इस शब का हर लम्हा क़ीमती है। इनसान को चाहिए कि इस रात शब्बेदारी करे और पूरी रात इबादत में गुज़ारे। शबहाए क़द्र के लिए कुछ नमाज़ो और दुआओं के साथ-साथ कुछ अज़कार (ज़िक्र की जमा) भी वारिद हुए हैं। 19वी रमज़ान की शब और 21वी शब में जो मख़सूस आमाल है, उनमें इस जुम्ले को कम अज़ कम सौ मर्तबा पढ़ने का ज़िक्र मिलता है। तारीख़ में मौजूद है कि चालीस हिजरी में माहे मुबारक की उन्नीसवीं शब की सहर में इमाम आली मक़ाम के फर्क़े अक़दस (सरे मुबारक) पर एक शख़्स जिसका नाम अब्दुर्रहमान इब्ने मुल्जिम मुरादी था ने ज़र्बत लगाई थी। जिसकी वजह से आप की शहादत वाक़ेअ हुई।

मगर इस ज़िक्र में लफ्ज़े ‘क़तलता’ यानी का़तिलों पर लानत की गई है। जबकि बज़ाहिर क़ातिल एक ही शख़्स था। इसका मतलब यह है कि मौला अली (अलैहिस्सलाम) के क़तल में और भी लोग शामिल हैं, जो इस लानत के मुस्तहिक़ हैं। कौन हैं वह लोग? इसका जवाब हमको सय्यदुस शोहदा इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की ज़ियारतों में मिलता है। ज़ियारते आशूरा में हम पढ़ते है “अल्लाह हुम्मल अनिल इसाबतिल लती जाहदतिल हुसैने (अलैहिस्सलाम) व शायअत व बायअत व ताबअत अला क़त्लेही अल्लाह हुम्मल अनहुम जमीआ…” उन सब पर लानत हो जिन्होंने किसी भी लिहाज़ से इस जंग की तैयारी की है। इसी तरह क़ातेलाने अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) में भी उन सब पर लानत है जिन लोगों ने इस मनसूबे में हिस्सा लिया – यानी उस औरत पर भी लानत जिसने इब्ने मुलजिम लानतुल्लाहे अलैह को क़त्ले अमीरे कायनात पर उक़साया, उस शाम के बाग़ी पर भी लानत जिसने इस क़त्ल का रास्ता हमवार किया, उन तमाम लोगों पर लानत जिनकी किसी भी तर्ज़ पर इस क़त्ल में शमूलियत रही हो। उसी तरह हम ज़ियारते वारिसा में यह फिक़रे पढ़ते है। “लानल्लाहो उम्मतन कतलतक, व लानल्लाहो उम्मतन ज़लमतक, व लानल्लारहो उम्मतन समेअत बे ज़ालिका फरज़ीयत बेहि” उस उम्मत पर लानत जिसने हुसैने मज़लूम को क़त्ल किया, उस उम्मत पर लानत जिसने फरज़न्दे ज़ैहरा (अलैहास्सलाम) पर ज़ुल्म किया और उन लोगों पर भी ख़ुदा की लानत हो जो इस शहादत की ख़बर को सुनकर उसके वाक़ेय होने पर राज़ी हुए। इस तरह जिन अफ़राद ने अमीरुल मोमेनीन के ख़िलाफ़ जंग की उनपर ज़ुल्म किया और उनकी शहादत की ख़बर सुनकर राज़ी हुए उन सब का शुमार क़ातिलाने अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) में होगा और उन सब पर ख़ुदा की लानत है। पस जिस शख़्स को भी आपकी शहादत की ख़बर ने मसरूर किया वह इस लानत का सज़ावार और मुस्तहिक़ है, चाहे वो इस क़त्ल में बराहेरास्त शामिल न रहा हो। तारीख़ ने उन अफ़राद का भी ज़िक्र किया है जो मदीने में थे और जब उनको शहादते अली (अलैहिस्सलाम) की ख़बर मिली तो उन्होंने ख़ुशी में सजदए शुक्र अदा किया। (तारीख़े तबरी, जि. 5, स. 150 – अलजमल, स. 46) उनपर और उनके इस सजदे पर ख़ुदा की लानत हो क्योंकि यह भी का़तिलाने मौलाए काएनात में शामिल हैं।

शबहाए क़द्र में इस ज़िक्र को फ़रामोश न करें बल्कि इन अय्याम में इस को कसरत से अदा करें और अहलेबैत (अलैहिमुस्सलाम) की खुशनूदी हासिल करें। “अल्लाह हुम्मल-अन क़तलत अमीरिल मोमेनीन (अलैहिस्सलाम) “

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