शिया होने की अहम तरीन निशानीयों में से एक निशानी यह भी है कि शिया अहलेबैते पैग़म्बर (अलैहिमुस्सलाम) की ख़ुशी मे ख़ुश और उनके ग़म में ग़मज़दा होता है। यह बात उसूले दीन के मुसल्लेमात में से है कि कोई शख़्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक वह रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) को अपनी जान से ज़्यादा महबूब न समझे और उनकी औलादे पाक को अपनी औलाद से ज़्यादा महबूब न रखे। इस तरह यह दीन की अहम पहचान है कि हर मोमिन के दिल में मोहम्मद और आले मोहम्मद (अलैहिमुस्सलाम) के लिए मोहब्बत हो। बल्कि इस दीन की असास (बुनियाद) ही मोहब्बते अहलेबैत है। इस मोहब्बत का इज़हार इस बात से भी होता है कि हम उनकी मुसिबतों को सुनकर किस क़द्र ग़मगीन होते है। यही सबब है कि अइम्माए अतहार (अलैहिमुस्सलाम) ने अपने चाहने वालो को शहीदे कर्बला (अलैहिस्सलाम) के ग़म में आँसू बहाने की तरग़ीब दी है। इमाम अली रज़ा (अलैहिस्सलाम) का जुम्ला यहाँ पर दोहरा देना मुनासिब है कि “ऐ शबीब के बेटे! तुम्हे किसी पर रोना आए तो (मेरे मज़लूम दादा) हुसैन पर रोया करो क्योंकि उन्हें निहायत ही मज़लूमाना तरीक़े से शहीद किया गया।” रिवायत बताती है कि अइम्मए मासूमीन (अलैहिमुस्सलाम) ऐसी मजालिस को बरपा किया करते थे, जिनमें सिर्फ़ सय्यदुश्शोहदा का मरसिया पढ़ा जाता था। इतना ही नही बल्कि उन मजालिस में पसे पर्दा घर की औरतों को भी जमा किया जाता था ताकि वह भी अपने मज़लूम जद पर गिरिया करें। क्योंकि उनहे निहायत ही मज़लूमाना तरीक़े से शहीद किया गया। इस सिलसिले की रिवायतें बिहारुल अनवार जि. 44 में देखी जा सकती हैं। अहादीसे मासूमीन में हुसैने मज़लूम पर गिरिया करने का बहुत सवाब लिखा है। बल्कि कुतोबे हदीस मसलन किताब अवालेमुल उलूम, बिहारुल अनवार, कामेलुज्जि़यारात वग़ैरा में बाक़ाएदा इस मौज़ू पर बाब मुरत्तब किया गया है। इस मज़मून को मुख़तसर रखने के लिए हम उन रिवायात में से कुछ को यहाँ नक़्ल कर रहे हैं।
क़ाला अबू अब्दुल्लाह (अलैहिस्सलाम)
मन ज़करना औ जुकिरना इन्दहू फख़रज मिन ऐनेही दमउन मिसलो जनाहे बऊज़तिन ग़फरल्लाहो लहू ज़ुनूबहू वलौ कानत मिसल ज़बदिल बहरे।
इमामे जाफरे सादिक़ (अलैहिस्सलाम) का इरशाद है “जिसको हमारे मसायब की याद इस तरह दिलाई जाए कि उसकी आँख से मक्खी के पर के बराबर भी आँसू निकल आए तो अल्लाह उसके सारे गुनाह बख़्श देगा। चाहे वह समुन्दर में पैदा होने वाले बुलबुले जितने ही क्यों न हो।” (तफसीरे अलकुम्मी, स. 616)
इस रिवायत से उन अश्क़ों की अज़मत का पता चलता है। ख़ुदा के नज़दीक यह गिरिया करने वाला इस क़द्र मुकर्रम हो जाता है कि ख़ुदा उसके सारे गुनाह को बख़्श देता है। यह इसलिए होता है कि वह ख़ुदा के जिसकी रहमत उसके गज़ब पर सबक़त रखती है, उस गिर्या करने वाले को अपनी रहमत के साए में ले लेता है। इस बात का ज़िक्र छटे इमाम की इस रिवायत में मिलता है।
इमामे जाफरे सादिक़ (अलैहिस्सलाम) फरमाते है: “ऐ मिस्मअ! जब भी कोई हमारे मसायब को सुनकर ग़मज़दा होता है तो इससे पहले की उसकी आँख से आँसू जारी हो वह ख़ुदा की रहमत के साए में होता है।” (आवालिम, जि. 17, स. 529)
इसी तरह की एक और रिवायत में सादिक़े आले मोहम्मद का यह कौ़ल नक़्ल हुआ है कि इमामे जाफरे सादिक़ (अलैहिस्सलाम) फरमाते हैं: “जिसके सामने हमारे मसायब का ज़िक्र हो और उसकी आँखें अश्कबार हो जाए तो अल्लाह उस चेहरे को आतिशे जहन्नुम (जहन्नुम की आग) पर हराम कर देता है।” (कामेलुज्जियारत, स. 104, ह. 10 – बिहार, जि. 44, स. 285, ह. 22)
इन रिवायात से इस बात का पता चलता है कि यह अश्क़े अज़ा गिरिया करने वाले को ख़ुदा की रहमतो मग़फे़रत का मुस्तहिक़ बना देता है। फिर अल्लाह उसके गुनाहों को दरगुज़र (दूर) करता है और उन अश्कों को उसकी निजात का बहाना बनाकर उसे माफ़ कर देता है।
इसी तरह की एक और मोतबर हदीस में इमाम अश्क की तासीर (असर) का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि ग़मे ह़ुसैन में बहने वाले आँसू जहन्नुम की आग को भूजा सकते है।
इमामे जाफर सादिक़ (अलैहिस्सलाम) का इरशादे गिरामी है कि “इमाम ह़ुसैन (अलैहिस्सलाम) के अज़ादार की आँख से निकले हुए आँसू का एक क़तरा अगर जहन्नुम में गिर जाए तो वह उसकी आग को इस तरह भुजा देगा कि उसमें कोई हरारत बाक़ी नही रहेगी।” (अवालिम, जि. 17, स. 529)
यक़ीनन जहन्नुम की आग कोई मामुली आग नही है। इस आग को ख़ुदा के ग़ैज़ो ग़ज़ब ने रोशन किया है। यह वह आग है जिसमें ख़ुदा का इन्तिक़ाम पोशीदा है। इस आग से तमाम मख़लूक़ पनाह तलब करती है। अइम्मा मासूमीन (अलैहिमुस्सलाम) अम्बियाए किराम को इस आग के ज़िक्र ने ख़ौफ में लर्ज़ा बरअन्दाम कर दिया है। उस आग से अगर कोई बचा सकता है तो वह परवरदिगार का रहम और करम है।
अजिरना मिनन नारे या मुजीरो (ऐ निजात दिलाने वाले हमें उस आग से आज़ाद करा दे)
इतना ही नही कि सय्यदुश्शोहदा (अलैहिस्सलाम) पर गिरिया करनेवाले शख़्स को अल्लाह जहन्नुम की आग से निजात देता है। बल्कि उसके लिए जन्नत में भी एक मकान तैयार कर देता है। जैसा कि बहुत सी रिवायात में वारिद हुआ है। इस तरह गिरिया करने वाले अज़ादार के लिए यह अश्के अज़ा उसके लिए दाएमी कामयाबी का पैग़ाम होते है। बतौर नमूना यह रिवायत पेश है:
इमाम मोहम्मद बाक़िर (अलैहिस्सलाम) का फ़रमान है – मेरे बाबा अली इब्ने ह़ुसैन (इमामे सज्जाद (अलैहिस्सलाम)) फ़रमाया करते थे जब भी कोई मोमिन मेरे बाबा हुसैन (अलैहिस्सलाम) पर और शोहदाए करबला पर इस तरह गिरिया करता है कि उसका चेहरा आँसूओं से तर हो जाए तो अल्लाह उसके लिए जन्नत में एक मकान तैय्यार कर देता है। (तफ़सीरे अलक़ुम्मी, जि. 2, स. 291 ले ज़विल क़ुर्बा अलक़ुनदूज़ी, जि. 3, स. 102)
इसलिए हम सब अज़ादार उन सय्यदुश्शोहदा (अलैहिस्सलाम) को इन अश्कों की एहमियत का ख़्याल रखना चाहिए। इसे किसी क़द्र कम या हल्का नही समझना चाहिए। कुछ लोग यह कहते है कि सिर्फ़ रोने से कुछ नही होता, इमाम ह़ुसैन (अलैहिस्सलाम) का मक़सद भी समझना जरूरी है। इस जुम्ले पर तबसिरा करना यहाँ पर बेमाना है। मगर इम तमाम रिवायात में सिर्फ़ और सिर्फ़ अहलेबैत की मुसिबतों पर गिरिया करने का सवाब और अज्र बयान किया गया है, कहीं भी मक़सद समझने की शर्त नही है। इसलिए इस जुम्ले का मक़सद भले ही क़ौम की इस्लाह करना हो और इस्लाह करना भी चाहिए, मगर यह भी एक हक़ीक़त है कि एक मक्खी के पर के बराबर आँख से निकला हुआ आँसू अज़ादारे ह़ुसैन की बख़्शिश के लिए काफ़ी है। वह किसी सूरत राएगा (बेकार) नही होगा।
या ख़ुदा अज़ादारो को सलामत रख। आमीन
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