क्या अहलेबैते नबी स.अ. को अलैहिमुस्सलाम कहा जा सकता है?

पढ़ने का समय: 5 मिनट

क्या अहलेबैते नबी स.अ. को “अलैहिमुस्सलाम”  कहा जा सकता है?

येह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब देना किसी भी मुसलमान के लिए मुश्किल नहीं है। मगर ख़ुदा बुरा करे नासबियत का जिसने मुसलमानों में अहलेबैते नबावी की अज़मत को कम करने की कोई क़सर नहीं छोड़ी है। अगर येह सवाल शियों से किया जाये तो हर एक का जवाब यही होगा कि अहलेबैते पैग़म्बर बिला-शुबह ‘अलैहिमुस्सलाम’ हैं मगर जब येह सवाल अहले तसन्नुन ओलमा से किया जाता है तो उनके यहां तीन तरह के जवाब मिलते हैं।

  1. एक वहाबी फ़िक्र के ओलमा जो अहलेबैत अतहार को अलैहिमुस्सलाम कहने के सख़्ती से मुख़ालिफ़ हैं। उनके यहां अंबिया अ।स। के अलावा किसी को अलैहिस्सलाम नहीं कहा जा सकता।
  2. दूसरा गिरोह उसके बर-अक्स ना सिर्फ़ येह कि अहलेबैत को अलैहिमुस्सलाम कहने का क़ाएल है बल्कि वह उसका पुरजोश देफ़ाअ़ भी करता है।
  3. इन दोनों के एलावा एक तीसरा गिरोह वह है जो ना इसका पूरी तरह से मुख़ालिफ़ है और ना ही पूरी तरह से मुआफ़िक़।बहरहाल जो भी अहले तसन्नुन ओलमा अहलेबैते पैग़म्बर स.अ. को अलैहिमुस्सलाम कहने के मुख़ालिफ़ हैं उनकी दलील येह है कि लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम’ सिर्फ़ अंबिया के लिए इस्तेमाल हो सकता है किसी और के लिए नहीं। इस की वजह येह है कि सिर्फ़ अंबियाए केराम ही मासूम अनिल-ख़ता हैं। उनकी येह दलील सही है कि चूँकि अंबिया मासूम हैं इसलिए उनको ‘अलैहिमुस्सलाम’ कहना चाहिए। शिया हज़रात भी इस बात के क़ाएल हैं। उनके नज़दीक क़ुरआने करीम की आयतें इस बात पर दलालत करती हैं कि अहलेबैते पैग़म्बर भी मासूम हैं। इस वजह से वह उनके लिए लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम’ का इस्तेमाल करते हैं।

सूरए अहज़ाब की आयत नंबर 33 यानी आय-ए-ततहीर इसकी सबसे वाज़ह दलील है।

اِنَّمَا يُرِيْدُ اللہُ لِيُذْہِبَ عَنْكُمُ الرِّجْسَ اَہْلَ الْبَيْتِ وَيُطَہِّرَكُمْ تَطْہِيْرًا۝

“ऐ अहलेबैते पैगंबर! अल्लाह येह इरादा करता है कि तुमसे हर तरह के रिज्स को दूर कर दे और तुमको इस तरह पाक कर दे जैसे पाक करने का हक़ है।”

इस आयत में वाज़ह तौर पर अहलेबैत की पाकीज़गी और इस्मत का ऐलान हो रहा है।

तमाम अहले तसन्नुन मुफ़स्सेरीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि यहां पाकीज़गी से मुराद शिर्क व कुफ्ऱ और शक से पाकीज़गी है। यानी अहलेबैते अतहार के यहाँ शिर्क व कुफ्ऱ का गुज़र नहीं है।

अहले तसन्नुन के बुज़ुर्ग आलिम अहमद इब्ने हनबल किताब ‘फ़ज़ाइलुस्सहाबा में इस आयत के ज़िम्न में लिखते हैं रसूल खुदा 6 माह के अर्से तक हर-रोज़ नमाज़े सुबह के लिए निकलते हुए हज़रत फ़ातेमा (स.अ.) के घर के दरवाज़े पर रुक कर सदा देते थे ऐ अहलेबैत नमाज़ नमाज़ नमाज़, ए अहलेबैत ”अल्लाह का बस येह इरादा है कि तुम लोगों से हर गुनाह को दूर रखे ऐ मेरे अहलेबैत अल्लाह तुम्हें पाक रखे जो पाक रखने का हक़ है।

(फ़ज़ाइलुस सहाबा, जि. 2 स0 761)

इस रिवायत को मुंदरजा ज़ैल अहले तसन्नुन की किताबों में भी देखा जा सकता है।

  • सुनने तिरमिज़ी जि. 5 स0 352
  • मसनद अहमद इब्ने हंमबल जि. 4 सफ़ह 516
  • अल-मुस्तदरक अलस्सहीहैन जि. 3 सफ़ह 172 हदीस 3206
  • अल-मोजमुल-कबीर जि. 3 सफ़ह 56 वग़ैरा

दूसरी आयत जिससे इस्तेफ़ादा किया जा सकता है वह है सूरए सजदा की आयत नंबर 56

रिवायत में मिलता है कि जब येह आयत नाज़िल हुई।

बे-शक अल्लाह और उसके (सब) फ़रिश्ते नबीए (मुकर्रम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) पर दुरूद भेजते रहते हैं, ऐ ईमान वालो तुम (भी) इन पर दुरूद भेजा करो और खूब सलाम भेजा करो’ (सूरए सजदा 32:56)

तो सहाबए केराम ने सरवरे काएनात स.अ. से पूछा:

या रसूल अल्लाह ( सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम)! हम आप पर कैसे दुरूद पढ़ें? आप ( सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) ने फ़रमाया

قولوا:اَللّٰهُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ وَّ ۔۔ وَ ذُرِّیَّتِهٖ کَمَا صَلَّیْتَ عَلٰی اِبْرَاهِیْمَ وَعَلٰی اٰلِ اِبْرَاهِیْمَ

मुझ पर दुरूद ऐसे पढ़ो “ऐ अल्लाह मुहम्मद स.अ. पर और उनकी ….. ज़ुर्रीयत पर दुरूद भेज जिस तरह तूने इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और उनकी आल पर दुरूद भेजा है’’

(सही-मुस्लिम बाबुत तसबीह वत-तहमीद वत-तामीन, जि. 1, स. 306 हदीस 407)

 

इस रिवायत से येह वाज़ेह हो जाता है कि आले मुहम्मद स.अ. पर दुरूद व सलाम भेजने का फ़रमान एक क़ुरानी हुक्म है। बल्कि उन हज़रात के लिए लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम’ का इस्तेमाल ना करना हुक्मे क़ुरआन की ख़िलाफ़वरज़ी होगी।

एक और मोअ़तबर हवाले में हदीस के फ़िक़रे इस तरह हैं आँहज़रत स.अ. ने जवाब में इस तरह फ़रमाया ”क़ूलू अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव व अला आले मुहम्मद कमा सल्लैता अला आले इब्राहीम इन्न-का हमीदुवँ मजीद, अल्लाहुम्मा बारिक अला मुहम्मदिवं व अला आले मुहम्मद कमा बा-रकता अला आले इब्राहीम इन्नका हमीदुवँ मजीद।“

(सही-अलबुख़ारी, किताबुद-दावात, बाबुस्सलात अलन नबी सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम: 2/940 रक़म अलहदीस 6112)

 

इस रिवायत में भी आले पाक का ज़िक्र मौजूद है मगर अज़्वाज को इस दुरूद में शामिल नहीं किया गया है। इस के अलावा नमाज़ की कबूलीयत के लिए भी मुहम्मद स.अ. और आले मुहम्मद अ0स0 पर दुरूद पढ़ना लाज़िमी है। येह तमाम दलाएल इस बात को साबित करते हैं आले मुहम्मद अ0स0 के लिए लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम का इस्तेमाल हुक्मे क़ुरआन और हुक्मे रसूल स.अ. है।

अहले तसन्नुन के यहाँ नासबी और ख़ारिजी फ़िक्र रखने वाले ओलमा और मुफ़्तियान की हर-आन कोशिश रहती है कि किसी तरह मुसलमानों को अहलेबैत की मुहब्बत से दूर कर दिया जाये। अपनी बिरादरी के दूसरे मुसलमानों को अहलेबैत के रास्ते से रोकने के लिए वह येह कह देते हैं कि येह रविश शियों की है जो रवाफ़िज़ हैं इसलिए कि येह अहले बिद्अत का दस्तूर है कि वह आले रसूल अ0स0 के लिए ‘अलैहिस्सलाम’ इस्तेमाल करते हैं। येह बद-अक़ीदा नाम निहाद मुसलमान, वहाबी मुफ़्तियान दर-हक़ीक़त ख़ुद अहले सुन्नत का नाम ख़राब करते हैं। शायद वह येह नहीं जानते कि अहले तसन्नुन के कई बुज़ुर्ग ओलमा ने लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम’ को पंजेतन पाक की हर फ़र्द के लिए अपनी अपनी किताबों में इस्तेमाल किया है। चंद मिसालें पेशे ख़िदमत हैं।

  • सही-बुखारी मा फतहुल-बारी मतबूआ मिस्र जि. शशुम सफहात 177, 131, 132, 122 पर जनाब फ़ातिमा (स0) के लिए ‘अलैहस्सलाम’ लिखा है।

इसी किताब के सफ़ा 119 पर इमाम हुसैन इब्ने अली के लिए ‘अलैहिमस्सलाम’ तहरीर है।

  • किताबे उम्दतुल-क़ारी शरहे सही बुख़ारी जिल्द हफ़तुम सफ़ह 237 (मतबूआ क़ुस्तुनतुनिया) पर जनाबे फ़ातिमा (स0) के लिए ‘अलैहस्सलाम’ लिखा है।
  • इसी तरह की तहरीर इरशादुल-बारी शरह सही-बुखारी जिल्द एक सफ़ा 97 (मतबूआ क़ुस्तुनतुनिया) पर देखी जा सकती है।
  • अहले तसन्नुन के बुजुर्ग मुफ़स्सिर क़ुरआन अल्लामा फ़ख्रुद्दीन राज़ी ने तफ़सीर कबीर जिल्द 2 सफ़ा 70 (मतबूआ दारुत-तबाअतुल आसिरा क़ुस्तुनतुनिया) पर और जिल्द हशतुम सफ़ा 322 पर हज़रात हसनैन और मौला अली के नामों के साथ ‘अलैहिस्सलाम’ लगाया है।
  • क़ाज़ी सनाउल्लाह पानीपती ने अपनी तालीफ़ तफ़सीरे मज़हरी जिल्द 7 सफ़ा 412 पर ‘हुसैन बिन अली अलैहिमस्सलाम लिखा’ है
  • हत्ता कि शियों की रद्द में लिखी जाने वाली किताब ‘तोहफ़ा इस्ना अशरया में मुतअद्दिद मक़ामात पर पंजतने पाक के अस्मा के साथ लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम का इस्तेमाल हुआ है।

लिहाज़़ा वहाबी ओलमा का येह कहना कि अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के अस्माए गिरामी के साथ लफ़्ज़ ‘अलैहिस्सलाम’ लगाना बिदअत है, एक झूठ है बल्कि येह अहलेबैते अतहार का हक़ है कि उनके एहतेराम में उनके अस्माए गिरामी के साथ ‘अलैहिस्सलाम लगाया जाए। हक़ीक़त तो येह है येह नासबी ओलमा बुग़्ज़े अहलेबैत की बीमारी में मुबतला हैं और इस की वजह मुंदरजा ज़ैल हदीस में मौजूद है

एक हदीस में मिलता है कि आँहज़रत स.अ. फ़रमाते हैं

من لم یعرف حق عترتی فلاحدی ثلث امّا منافق وامّا ولدزانیۃ واما حملتہ امّہ علٰی غیر طھر۔

जो मेरी औलाद का हक़ ना पहचाने वह तीन बातों में से एक से खाली नहीं, या तो मुनाफ़िक़ है या हराम-ज़ादा है या आलमे नजासत में नुतफ़ा मुनअक़िद हुआ है।

(कंज़ुल आमाल हदीस 34199, मोअस्ससतुर्रिसाला बैरूत 2/104)

 

अहादीसे पैगंबर स.अ. में एक मशहूर हदीस है जो इस मतलब के लिए क़ौले फ़स्ल है आँहज़रत ने अली इब्ने अबी तालिब के लिए फ़रमाया लहमुका लहमी या: दमुका दमी उनका गोश्त मेरा गोश्त है उनका ख़ून मेरा ख़ून है।

 

हक़ीक़त तो येह है कि जो नबीए रहमत के मानिंद गोश्त-पोस्त और खून रखता हो वह एहतेराम में भी नबी के जैसा ही होगा वर्ना वह लोग जो नबीए अकरम (स0) का एहतेराम ना जानते हों वह आले नबी (अ0स0) का एहतेराम क्या जानेंगे।

 

Be the first to comment

Leave a Reply