क्या ख़ौफ़ज़दा हो जाना बुज़दिली की अलामत है?

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बाज़ आह्ले तसन्नुन लोग इस बात पर ऐतेराज़ करते हैं कि शिया यह दावा करते हैं कि उनके बारहवें इमाम 255 हिजरी से यानी 1000 साल से ज़्यादा मुद्दत से ज़िन्दा हैं और ग़ैबत में हैं। वह लोग उनकी ग़ैबत को एक अलग रंग देते हैं। वह अपने ज़हनी फ़ुतूर की तर्जुमानी करते हुए कहते हैं कि इमामे मेहदी (अलैहिमुस्सलाम) अपनी जान की सलामती के लिए रुपोश हैं। यह अह्ले तसन्नुन ओलमा यह सवाल करते हैं कि यह कैसे इमाम है, जिन्हें अपनी जान का ख़ौफ़ लाहक़ है? इस ज़िम्न में वह यहाँ तक कह देते हैं कि (नउज़ोबिल्लाह) यह ग़ैबत के पर्दे में छुपना बुज़दिली है। वह इल्ज़ाम लगाते हैं कि शियों के बारहवें इमाम माज़ल्लाह बुज़दिल और डरते हैं?

जवाब: हर साहिबे अक़्ल इस बात को बख़ूबी समझता है कि दिलेरी और बहादूरी सिर्फ़ लड़ने और मर मिटने का नाम नहीं है। इन्सान का कमाल उसके मक़्सद की तकमील और हुसूलयाबी है। मक़्सद के हुसूल के लिए ख़ामोशी इख्ते़यार कर लेना, हथयार न उठाना और मुनासिब वक़्त का इन्तेज़ार करना, इन्सान की दानिशमंदी की अलामत है। जान का बचाना यूँ भी हर फ़र्द पर वाजिब है। क़ुरआने मजीद का वाज़ेह फ़रमान है “वला तुल्क़ू बे ऐदीकुम इल्लत्तहल्लोकते” (सूरए बक़रा, आयत 195)। अपने आपको हलाकत में मत डालो। क़ुरआन ने मुख़्तलिफ़ सूरतों में बार बार अंबिया की दास्ताने बयान की हैं। उन दास्तानों में यक्साँ बात बयान की गई है कि जब कभी कभी किसी कौम के पास किसी नबी को भेजा गया तो उस कौम की अक्सरियत ने उसकी बात नहीं मानी, उसे झूटलाया, उसपर ज़ुल्म किया और कुछ अंबिया को तो क़त्ल भी कर दिया गया। यही सबब है कि अंबियाए किराम, बहुक्मे ख़ुदा अपनी जान बचाने की ग़रज़ से कुछ मौको़ं पर ख़ामोशी इख़्तेयार कर लेते थे या अपनी क़ौम से ज़ाहिरी तौर पर क़तए ताल्लुक कर लेते थे। तो क्या इस फ़ेल को अंबिया की बुज़दिली कहा जाएगा? क्या कौम के ताकत फ़ासिदों औऱ ज़ालिमों के शर से अपने मानने वालों को बचाने के लिए ग़ैबत में चले जाने को बुज़दिलि का नाम दिया जाएगा? कौम की नाफ़रमानी के सबब मुख़्लिस मोमेनीन को अशरार (दुश्मन) का शिकार बनने से बचाने के लिए रूपोश हो जाने को बुज़दिली हरग़िज़ नही कहा जाएगा। दर हक़ीक़त अपने अज़ीम मक़सद की बका़ के लिए, इस तरह ख़ामोशी इख़्तियार करना या ग़ैबत इख़्तियार करना, अंबियाए किराम की एक अहम सुन्नत रही है। जनाबे मूसा (अलैहिस्सलाम) अपनी कौम बनी इस्राईल को फ़िरऔन के ज़ुल्म से निजात दिलाने वाले ऊलुल अज़म नबी थे, उनकी दास्तान पढ़ते वक़्त आपको उनके खौफ़ज़दा होने की बात मिलेगी। एक मौक़े पर मिलता है कि फ़िरऔन के डर से जनाबे मूसा (अलैहिस्सलाम) जान बचाकर अपने शहर से निकल आए और अपनी कौम से एक तवील मुद्दत के लिए ग़ैबत इख़्तियार करली। इतना ही नही जब दरबारे फ़िरऔन में जादूगरों से उनका सामना हुआ तो उन जादूगरों का जादू देखकर जनाबे मूसा (अलैहिस्सलाम) ख़ाएफ़ (डर) हो गए। अल्लाह इरशाद फ़रमाता है “फऔजस फ़ी नफ़्सेही ख़ीफ़तम मूसा” (सूरए ताहा, आयत 67) क्या यह ख़ौफ़ बुज़दिली की अलामत है?

इसी तरह सरवरे काएनात (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने भी अपनी जान की हिफ़ाज़त की गरज़ से मक्के में ख़ामोशी इख़्तियार फ़रमाई और जब आपके सबसे बड़े मददगार और नासिरे इस्लाम जनाबे अबूतालिब (अलैहिस्सलाम) की रहलत हो गई, तो आपको अपनी जान बचाने के लिए मक्के से मदीने हिजरत करनी पड़ी। इस से यह पता चलता है कि अपनी जान की ह़िफ़ाज़त न तो बुज़दिली की अलामत है और न ही यह कोई फ़ेले क़बीह (बुरा काम) है बल्कि सुन्नते सरवरे आलम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) है। इतना ही नही क़ुरआन यह बताता है कि दौराने सफ़र जब रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) और उनके साथी (अबूबक्र) ग़ारे हिरा में छुपे थे तो अबूबक्र चिल्ला चिल्ला कर रोने लगे, क्या इस रोने को भी बुज़दिली कहा जाएगा? अगर ख़ौफ़ज़दा हो जाना बूरी खसलत है तो सूरए तौबा की आयत 4 अबूबक्र की फज़ीलत नहीं बल्कि बुज़दिली को बयान करती है। आख़िर में यह याद दिलाना भी ज़रूरी है कि जो बद अक़ीदा लोग मोमिनो के ख़ोफ़ज़दा होने को बुज़दिली समझते हैं वह जान लें कि अल्लाह का वादा है कि वह इस ख़ौफ़ को उन के लिए अमनो अमान में बदल देगा।

बादल्लाहुल्लज़ीना आमनू मिनकुम व अमेलुस्सालेहाते ल यस्तख़्लेफन्नाहुम फ़िल अर्ज़े कमस तख़्लफ़ल लज़ीना मिन क़बलेहिम वल युमक्केनन्नहुम लहुम दीनहुम लज़िर्तज़ा लहुम वल युबद्देलन्नहुम मिम बादे ख़ौफ़ेहिम अमना याबुदूननी ला युश्रेकूना बी शैअन वमन वमन कफ़र बाद ज़ालिक फ़ऊलाएक हुमुल फ़ासेकून। (सूरए नूर आयत 55) अल्लाह वादा करता है ईमान लाने वालों से और अमले सालेह बजा लाने वालों से कि उन के ख़ौफ़ को अमन में बदल देगा।

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