“व यकूलुल लज़ीन कफ़रू लस्त मुर्सला कु़ल कफ़ा बिल्लाहे शहीदुम बैनी व बैनकुम व मन इन्दहू इल्मुल किताब” (सूरए राद, आयत 43)
काफ़िर कहते है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) रसूल नहीं हैं, कह दीजिए कि आपकी रिसालत की गवाही के लिए अल्लाह काफ़ी है और वह कि जिसके पास किताब का इल्म है।
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की रहलत के बाद ख़लीफ़ए अव्वल अबूबक्र ने बाग़े फ़िदक दुख़्तरे रसूल (अलैहास्सलाम) से छीन लिया। उनका कहना थी कि यह माले फ़ै है और मुसलमानों की जागीर है न के रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की ज़ाती मिलकियत। जनाबे सय्यदा (अलैहास्सलाम)ने दावा किया कि इस बाग़े फ़िदक को उनके बाबा रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने उन्हें हदिया कर दिया था। अबूबक्र ने इस बात के लिए उनसे गवाह तलब किए। ख़ातूने जन्नत (अलैहास्सलाम) ने अपने दावे को साबित करने के लिए दो गवाह पेश किए। उनमें से एक अहम गवाह मौला अली (अलैहिस्सलाम) हैं।
मौला अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही क्यों अहम है?
1) मौला अली (अलैहिस्सलाम) को रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने बचपन से पाला है। उनकी परवरिश ख़ुद हज़रत ख़त्मी मर्तबत (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने फ़रमाई थी। यहाँ तक कि हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) से जितने क़रीब रहे उतना कोई दूसरा रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) से क़रीब नहीं रहा। मौला अली (अलैहिस्सलाम) रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के महरमे असरार थे और उनके क़ौल की गेहराई और मक़सद को बख़ूबी समझते थे।
2) आप (अलैहिस्सलाम) ने सबसे पहले इसलाम क़ुबूल किया बल्कि तमाम तर तालिमाते इसलाम आप (अलैहिस्सलाम) ने बिला वास्ता रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) से सीखें हैं।
3) क़ुरआन की आयात को भी अली (अलैहिस्सलाम) से बेहतर कोई नहीं जानता था। कौनसी आयत मोहकम है, कौन सी मुतशाबेह, कौन सी नासिख़ है, कौन सी मन्सूख़ है और क्यों मन्सूख़ हुई। इन सब बातों का इल्म रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने अपने वसी अली (अलैहिस्सलाम) को तालीम दी थी। अहकामे इलाही का मुकम्मल इल्म सिर्फ़ अली (अलैहिस्सलाम) ही को था।
4) क़ुरआन ने भी मौला अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही को बहुत अहमियत दी है। मसलन सूरए राद, आयत 34 में रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) की गवाही के लिए अल्लाह के साथ मौला अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही का ज़िक्र है। सूरए आले इमरान, आयत 16 में हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) रसूललुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) का नफ़्स कहा है और नसारा के ख़िलाफ़ रसूलुल्लाह की रिसालत का गवाह बनाया है।
5) इतना ही नहीं वल्कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने बारहा यह इरशाद फ़रमाया है कि “अलीयो मअल हक़ वल हक़्क़ो मअ अली अल्लाहुम्मा अदेरिल हक़ हैसो मा दार” अली (अलैहिस्सलाम) हक़ के साथ है और हक़ अली (अलैहिस्सलाम) के साथ है, ऐ अल्लाह हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली (अलैहिस्सलाम) मुड़ें। (तरफ़ैन का इस हदीस पर इत्तेफ़ाक़ है)
6) अली (अलैहिस्सलाम) भी मुसलमानों के खलीफ़ए राशिद हैं। जिस तरह वह अबूबक्र को खलीफ़ए राशिद मानते हैं इस तरह एक की गवाही दूसरे के दावे के मुक़ाबिल में पेश की जा रही है।
मौला अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही क्यों क़ुबूल नहीं की गई?
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) ने मुतअद्दिद मुक़ामात पर और मुतअद्दिद मौक़े पर अपने चचाज़ाद भाई और मुआविने (मददगार) ख़ास हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अलैहिमस्सलाम) के फ़ज़ाएल और मनाक़िब मुसलमानों को बताए है। कुतुबे अहादीसो सुनन में यह रिवायतें मोजूद हैं। ऐसा भी नही है कि अबूबक्र को मौला अली (अलैहिस्सलाम) के इन फ़जाएले अली (अलैहिस्सलाम) के इन फ़ज़ाएल का इल्म नहीं था, बल्कि कुछ रिवायाते फ़ज़ाएले अली (अलैहिस्सलाम) ख़ुद अबूबक्र से मरवी हैं। फ़िर सवाल यह है कि जब अली (अलैहिस्सलाम) हक़ के साथ है और ‘अश्रए मुबश्शिरा’ में शामिल हैं तो उनकी गवाही क्यों क़ुबूल नहीं की गई? इसलिए कि वह फ़ातेमा ज़ेहरा (अलैहास्सलाम) के शौहर हैं और फ़िदक में उनका ज़ाती मफ़ाद है। तो कया ख़लीफ़ा का ये ख़्याल था कि अली ( अलैहिस्सलाम) मिलकियत हासिल करने के लिए (माज़ल्लाह) झूटी गवाही दे सकते हैं? बल्कि दे रहे हैं। अब मसला यह है कि उनमें से एक दूसरे को झूटा मान रहा है। अगर अबूबक्र की बात सही है तो अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही झूटी है और अगर अली (अलैहिस्सलाम) की गवाही सही है तो अबूबक्र का दावा झूटा/गलत है। लुत्फ़ की बात यह है कि दोनों का शुमार ख़ुलफ़ाए राशेदीन में भी है और अशरए मुबश्शिरा में भी है।
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