बिला शुबाह वो पहला मकान जो लोगों के लिये बनाया गया वो बक्का (मक्का) में है जो बा-बरकत है और सारे आलम के लिये हिदायत है।’’
वो पहला मकान जो लोगों के लिये बनाया गया , उनकी हिदायत का ज़रीया और मुस्लमानो का कि़ब्ला , खानए काबा है। इस बा-बरकत मकान की निशानदही कु़रआन ने इस तरह की है कि ये मकान सरज़मीने बक्का पर है (शहर मक्का का पूराना नाम है।) इस घर की अज़मत के लिये यही काफ़ी है कि ख़ुदा ने इसको अपने नाम से मनसूब कर लिया और इसी लिये इस मकान को ‘बैतुल्लाह’ यानी अल्लाह का घर कहा जाता है।
कु़रआन में इस मकान की अज़मत के बारे में बहुत सी आयात मौजूद हैं इन में से एक ये है ‘‘ ……. अल्लाह ताला ने ख़ानए काबा को मोहतरम घर क़रार दिया है।’’ (सुरए माएदा: 97)
ऐसा नहीं है कि काबा मुस्लमानों का कि़ब्ला बनने के बाद बा-अज़मत हुआ है। कु़रआन ने इस मकान की अज़मत की दास्तान दौरे इब्राहीम (अ.स.) से बयान की है। इस मकान की तहारत और बुज़ुर्गी के लिये यही बात काफ़ी है कि इसको खु़दा के ख़लील ने ब-हुक्मे ख़ुदा ख़ुद अपने हाथों से ताअमीर किया है। इस घर का शरफ उस वक्त और बढ़ गया जब इस में बेअ-सते रसूल (स.अ.व.व.) से तीस साल क़ब्ल बाबे मदीनतुल इल्म हज़रत अली इब्न अबी तालिब अ. की विलादत बा-सआदत हुई। ये वाक़ेआ तारीख़ का वो अज़ीम वाके़आ है जिसको तमाम शिया , सुन्नी मोर्रेखी़न और मोहद्देसीन ने नक़्ल किया है। मगर चन्द दुश्मनाने अहलेबैत (नासेबी) अफ़राद इस वाक़ेए के मुन्किर नज़र आते हैं। बाज़ ने इस की अज़मत को कम करने के लिये ये दावा किया कि ये शरफ सिर्फ़ हज़रत अली इब्न अबी तालिब (अ.स.) को ही नहीं मिला, कोई और शख़्स (हकीम बिन हेज़ाम) भी काबे में पैदा हुआ है।
इन जाली रिवायात और मनघड़त दास्तानों का जवाब सिर्फ़ शिया उलमा ही नहीं बल्कि अहले तसन्नुन (सुन्नी) उलमा ने भी दिया है। बाज़ शिया उलमा ने इस मौज़ू पर मुस्तक़िल किताबें भी लिखी हैं। इस मुख़तसर मका़ले में हम इस मौज़ू पर सिर्फ एक तायराना नज़र डालेंगें।
अहले तसन्नुन के मोतअद्दिद उलमा ने इस बात का इक़रार और तसदीक भी की है के हज़रत अली (अ.स.) की विलादत खा़नए काबा में हुई है। इन में से कुछ का ज़िक्र हम यहाँ बतौर इस्तेदलाल कर रहें हैं।
1) किताब मुसतदरक अलस-सहिय्यैन के मुअल्लिफ और अलहे तसन्नुन के एक निहायत ही बुज़र्ग और मोतबर आलिम इमाम हाकिम ने हकीम बिन हेज़ाम के हालात का तज़केरा करते हुये लिखा हैः
‘‘ ये तवातुर से साबित है कि फा़तेमा बिन्ते असद ने हज़रत अली (अ.स.) को काबे के अन्दर जन्म दिया’’। (मुसतदरक, हाकिम 48)
2) अहले तसन्नुन के एक और जय्यद आलिम अल्लामा इब्ने सब्बाग़ मालिकी (इज़ालतुल खि़फा़ जि. 2 सफ़ा 251) ने इस तरह नक़ल किया है।
‘‘अली बिन अबी तालिब (अ.स.) शबे जुमा 13 रजब 30 आमुलफील, 32 साल क़ब्ल अज़ हिजरत मक्काए मोज़्ज़मा में ख़ानए काबा के अन्दर पैदा हुये । हज़रत अली (अ.स.)की जलालत व बुज़र्गी और करामत की वजह से खुदावंद आलम ने इस फज़ीलत को इनके लिये मख़सूस किया है।’’
3) अल्लामा इब्न जौज़ी हनफी (तज़केरातुल ख्वा़स , सफा 20) कहते हैं के हदीस में वारिद हैः
‘‘ जनाबे फा़तेमा बिन्ते असद ख़ानए काबा का तवाफ कर रहीं थीं के वज़ए हमल के आसार ज़ाहिर हुये उसी वक्त खा़नए काबा का दरवाज़ा खुला और जनाबे फातेमा बिन्ते असद काबे के अन्दर दाख़िल हो गईं। इसी जगह खा़नए काबा के अन्दर हज़रत अली (अ.स.) पैदा हुये।’’
(वाज़ेह रहे के मोतबर कुतुब के मुताबिक जनाब फातेमा बिन्त असद के लिये दीवार शिगाफता हो कर नया दर बना था।)
4) सफी़उद्दीन हज़रमी शाफई (वसीलतूल मआल, हज़रमी शाफई, सफ़ा 282) लिखते हैंः
हज़रत अली इब्न अबी तालिब (अ.स.) की विलादत खा़नए काबा के अन्दर हुई । आप (अ.स.) वो पहले और आख़री शख़्स हैं जो ऐसी पाक और मुक़द्दस जगह पैदा हुए।’’ इन मोतबर हवालो के अलावा शियों की एक मारूफ और तहक़ीकी किताब ‘ शरहे अहक़ाकु़ल हक़’ में इस वाक़ए को अहले तसनुन के 17 मआखिज़ से नक़्ल किया है। ( मरअशी नजफी, शरहे अहका़कु़ल हक़, जि. 7, सफा 486-491 )
इन तमाम रिवायात से इस बात का तो यकी़नी इल्म हो जाता है कि हज़रत अली इब्न अबी तालिब (अ.स.) की विलादत ‘ बैतुल्लाह ’ में हुई थी और ये बात भी तै है कि उनके अलावा किसी और को ये शरफ़ नही मिला है। न किसी नबी को न किसी सहाबी को। फिर ये मनघड़त बात किसने और क्यों घड़ी है कि काबे में किसी और की विलादत भी हुई है? इसका जवाब ये है कि मौलाए कायनात को खुदावंद आलम ने बहुत से फज़ाएल और मनाकि़ब से नवाज़ा है। इनमें से बहुत से फज़ाएल ऐसे है जिन्हें कोई दुसरा शख्स छू भी नहीं सकता। ( ……ये तो अल्लाह का फज़्ल है वो जिसे चाहता है अता करता है)
बजाये ये कि मौलाए कायनात के इन फज़ाएल को दिल व जान से कु़बूल किया जाए , दुश्मनाने अमीरूलमोमेनिन ने हसद की बिना पर इन फज़ाएल का या तो इन्कार कर दिया या इनकी अहमियत को कम करने की कोशिश की। इतना ही नहीं अमीरूलमोमेनीन के फ़ज़ाएल छूपाने के लिये इनको बयान करने पर पाबंदी भी लगा दि गई। इस अमल को एक जुर्म करार दिया गया। मनाक़िबए मौलाए कायनात बयान करने वालों को खा़मोश करने की कोशिशें की गईं हत्ता के इनको क़त्ल कर दिया गया । तारीख़ में एसे बहुत से अफ़राद का ज़िक्र मिलता है जिन को सिर्फ़ इस बात पर क़त्ल किया गया के वो अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) के फज़ाएल बयान किया करते थे। मगर हक़ व बातिल की यही पहचान है कि आज हक़ को दबाने , छुपाने और मिटाने वाले मिट गए मगर हक़ और आवाज़े हक़ बुलन्द करने वाले आज भी इसी शान से परचमे हक़ बुलन्द किये हुये हैं।
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