इन्सान जिन लोगों के साथ उठता बैठता है उससे उसकी शख़्सियत का पता चलता है। अच्छे लोग अच्छे लोगों की सोहबत पसन्द करते हैं। जबकि बुरे लोगों को बुरी सोहबत ही पसन्द आती है। इनसान अपनी सोहबत से पहचाना जाता है। रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) या इमाम की सोहबत एक अज़ीम सोहबत है। इसकी एक वजह यह है कि उन मुक़द्दस हस्तियों के साथ उठने बैठने से इनसान उनके इल्मो अख़्लाक़ के साथ-साथ उनकी नूरानियत से भी मुस्तफ़ीज़ होता है। लेकिन उन असरात को क़ुबूल करने के लिए इनसान में ज़र्फ़ होना भी ज़रूरी है। इसके लिए कुछ शराएत हैं, जिनको पूरा करना लाज़मी है। तारीख़ बताती है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के हम रक़ाब लोग तो बहुत थे मगर सबको आपकी सहाबियत रास न आई। हर एक उनमें से जन्नती भी नहीं है। इमामे दौरां की सहाबियत पा लेना भी बहुत बड़ा शरफ़ है और उसके भी शराएत हैं। हज़रत इमामे जाफ़रे सादिक़ (अलैहिस्सलाम) का फ़रमान है:
मन सर्र अंय यकूना मिन अस्हाबिल क़ाएमे पल्यन्तज़िर वल यामल बिल वरए व महासेनिल अख़्लाक़े वहुव मुन्तज़िर फ़इन माता व कोमेल क़ाएमो बादहू कानल्लाहो मिनल अज्रे मिस्लो अज्रे मन अदरकहू
जिस शख़्स को यह बात पसन्द है कि वह हज़रत क़ाएम (अलैहिस्सलाम) के नासेरान से बन जाए तो उस पर लाज़िम है कि वह उनका इन्तेज़ार करे, गुनाहों को छोड़ दे, तक़्वा इख़्तेयार करे, परहेज़गार बने, अपने अख़्लाक़ियात और आदात को अच्छा बनाए। ऐसा शख़्स ही हक़ीक़ी मुन्तज़िर है अगर ऐसा शख़्स मर जाए और हज़रते क़ाएम (अलैहिस्सलाम) के ज़ुहूर को न पा सके तब भी उसे ऐसा आज्रो सवाब मिलेगा जैसे उसने ख़ुद अपने इमाम का ज़माना पाया हो। (बिहारुल अनवार, जिल्द 52, सफ़्हा 140 / ग़ैबते नोमानी)
इस हदीस में इमाम ने तीन सिफ़तों का ज़िक्र किया है। इमाम का मुन्तज़िर होना यानी अपने आपको इमाम की आमद के लिए हमेशा तैयार रखे। ऐसा न हो कि उसके इमाम का ज़ुहूर हो और वह ग़फ़लत का शिकार बना रहे और न यह सूरते हाल हो कि तूले ग़ैबत की वजह से वह मायूस हो जाए। दूसरे यह कि अपने आपको तक़्वे से भी आला मन्ज़िल “वरअ” तक पहूँचा दे। ऐसा न हो कि गुनाहों की आलूदगी उसे अपने इमाम की सोहबत से दूर कर दे। यह भी मुम्किन है कि अगर उसका तक़्वा इमाम के मेयार का न हुआ तो हज़रत उसको अपना सहाबी न बनाए। उसमें यह सिफ़त भी मौजूद हो कि उसका अख़्लाक़ अच्छा हो, उसके अख़्लाक़ की यह अच्छाई न सिर्फ़ यह कि ख़ुद उसको फ़ाएदा पहूँचाएगी बल्कि दूसरों को भी अच्छाई की दावत देगी। वह अपने बेहतरीन अख़्लाक़ और बुलन्द किरदार की वजह से मश्हूर हो और लोग उसे देखकर ख़ुद कहे कि यह इमाम मेहदी (अलैहिस्सलाम) का शिया है। इस तरह वह हक़ीक़ी मुन्तज़िरे इमाम बन जाएगा। उसी के लिए वह अज्रो सवाब है जो इमाम के हमराह लोगों को मिलेगा। वह लोग जो इमाम के हमराह होंगे वह सिर्फ़ उनके सहाबी न होंगे बल्कि उनकी हुकूमत के क़ाएम करने में उनके मददगार भी होंगे और जब यह हुकूमते अद्लो इन्साफ़ हो जाएगी तो उसकी तक़्वियत और दवाम भी उन अस्हाबे इमाम की वजह से ही तो होगी।
हुकूमते इमाम को चलाना, उनके एहकाम को नाफ़िज़ करना, लोगों के साथ अद्लो इन्साफ़ से पेश आना, यह सब उस के उमूर में शामिल होगा। अब अगर इस हदीस में बयान की हुई ख़ुबीयाँ न हों तो वह पूरी तरह से नाकामयाब रहेगा। और हो सकता है कि वह हज़रत की हुकूमत को भी कमज़ोर बना दें।
बारगाहे इलाही में दुआ है कि ख़ालिक़े काएनात हम सब को इन सिफ़ात से आरास्ता करे। हमें इस लाएक़ बना दे कि हमारा इमाम हम से राज़ी हो और हमें अपने अन्सार में शुमार करे। आमीन
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